बनारस की सुबह, गंगा का कल-कल बहता पानी, सूर्योदय की हल्की हल्की लालिमा,वातावरण में एक अद्भुत शांति और सुकून और उस गंगा के किनारे से आती हुई शहनाई की मधुर आवाज़।ऐसा लगता जैसे कोई गंगा को ही शहनाई सुना रहा हो।हाँ!! यह शहनाई और कोई नहीं बल्कि उस्ताद बिस्मिल्ला खान सुना रहे होते थे।पद्म श्री,पद्म भूषण,पद्म विभूषण, भारत रत्न जैसे सभी पद्म पुरुष्कारों से जिन्हें सम्मानित किया गया था।ऐसा नाम जो शहनाई का पर्याय सा बन चुका था।उस्ताद जी ऐसे थे जिन्होंने शहनाई को एक शादी-ब्याह में बजाए जाने वाले वाद्य से बढा कर एक शास्त्रीय संगीत के वाद्य के रूप में स्थापित किया।अपने चाचा अली बख्श 'विलायती' साहब से उस्ताद जी ने अपनी शहनाई की तालीम ली थी।उस्ताद जी का व्यक्तित्व बनारस के हर रंग से रंगा हुआ था।उनका व्यक्तित्व गंगा-यमुना तहज़ीब को सही अर्थ में सार्थक करता था।बिस्मिल्ला खान साहब कहते थे-"संगीत वो चीज़ है जिसमें जात-पात नहीं देखा जाता,संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।"उनके लिए तो शहनाई बजाना अल्लाह के इबादत जैसा था।शहनाई को तो उन्होंने अपनी बेगम का दर्जा दे रखा था अपनी बेगम की मृत्यु के बाद।सहजता,सरलता और सुगमता ही उनकी फ़क़ीरी व्यक्तित्व की पहचान थी।
उस्ताद जी का जन्म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को एक मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खां और मिट्ठन बाई के यहां हुआ था और यह वर्ष हम उनकी शताब्दी मना रहे हैं।मैं यहाँ बिस्मिल्ला खान साहब से जुरी एक बड़ी ही रोचक बात बताना चाहूँगा, उस्ताद जी की माँ कभी नहीं चाहती थीं की उनका पुत्र एक शहनाई वादक बने।ऐसा इसलिए क्यों की उनकी माँ इसे बहुत उपयुक्त काम नहीं समझती थी।उनका मानना था की शहनाईवादकों को सिर्फ़ शादी-ब्याह में बुलाया जाता था।१५ अगस्त १९४७ को जब हमारा देश आज़ाद हुआ तब उस्ताद जी की ही शहनाई की फूँक लाल क़िले पर गूँज रही थी तब से ये एक प्रथा सी बन गयी की हर आज़ादी दिवस पर लाल क़िले पर ध्वजारोहन के बाद उस्ताद जी की शहनाई बजाई जाएगी।उस्ताद जी ने वैसे दौर में भी गाना-बजाना किया जब की इसको सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता था, तब ख़ां साहब ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनें बजा कर शहनाई जैसे वाद्य को एक देश-
विदेश में एक अलग ही पहचान दिलाई।
शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-
तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।..
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की धुन बनारस के गंगा घाट से निकलकर दुनिया के कई देशों में बिखरती रही। उनकी शहनाई अमेरिका,एशिया,अफ़्रीका जैसे सभी महाद्वीपों में गूँजी।उनकी शहनाई की गूंज से फिल्मी दुनिया भी अछूती नहीं रही। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें बजाईं। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म‘स्वदेश’ के गीत‘ये जो देश है तेरा’में शहनाई की मधुर धुन बिखेरी।उनकी मरते दम तक यह ख़्वाहिश थी कि वो कभी इंडिया गेट पर शहनाई बजाएँ किंतु यह ख़्वाहिश उनकी पूरी न हो सकी।यक़ीन मानिए उनकी व्यक्तित्व,उनकी तहज़ीब,उनकी सोच, उनकी संगीत जो हर भेद-विभेद से ऊपर रहा। आज की परिस्थितियाँ उन्हें और उनकी व्यक्तित्व को और भी प्रासंगिक बना दिया है।
उस्ताद जी का जन्म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को एक मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खां और मिट्ठन बाई के यहां हुआ था और यह वर्ष हम उनकी शताब्दी मना रहे हैं।मैं यहाँ बिस्मिल्ला खान साहब से जुरी एक बड़ी ही रोचक बात बताना चाहूँगा, उस्ताद जी की माँ कभी नहीं चाहती थीं की उनका पुत्र एक शहनाई वादक बने।ऐसा इसलिए क्यों की उनकी माँ इसे बहुत उपयुक्त काम नहीं समझती थी।उनका मानना था की शहनाईवादकों को सिर्फ़ शादी-ब्याह में बुलाया जाता था।१५ अगस्त १९४७ को जब हमारा देश आज़ाद हुआ तब उस्ताद जी की ही शहनाई की फूँक लाल क़िले पर गूँज रही थी तब से ये एक प्रथा सी बन गयी की हर आज़ादी दिवस पर लाल क़िले पर ध्वजारोहन के बाद उस्ताद जी की शहनाई बजाई जाएगी।उस्ताद जी ने वैसे दौर में भी गाना-बजाना किया जब की इसको सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता था, तब ख़ां साहब ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनें बजा कर शहनाई जैसे वाद्य को एक देश-
विदेश में एक अलग ही पहचान दिलाई।
शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-
तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।..
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की धुन बनारस के गंगा घाट से निकलकर दुनिया के कई देशों में बिखरती रही। उनकी शहनाई अमेरिका,एशिया,अफ़्रीका जैसे सभी महाद्वीपों में गूँजी।उनकी शहनाई की गूंज से फिल्मी दुनिया भी अछूती नहीं रही। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें बजाईं। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म‘स्वदेश’ के गीत‘ये जो देश है तेरा’में शहनाई की मधुर धुन बिखेरी।उनकी मरते दम तक यह ख़्वाहिश थी कि वो कभी इंडिया गेट पर शहनाई बजाएँ किंतु यह ख़्वाहिश उनकी पूरी न हो सकी।यक़ीन मानिए उनकी व्यक्तित्व,उनकी तहज़ीब,उनकी सोच, उनकी संगीत जो हर भेद-विभेद से ऊपर रहा। आज की परिस्थितियाँ उन्हें और उनकी व्यक्तित्व को और भी प्रासंगिक बना दिया है।