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Sunday, 14 May 2017

गिरिजा...

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित "गिरिजा" नामक पुस्तक जिसको की श्री यतीन्द्र मिश्र जी ने लिखा है, एक बेहद सरल और रोचक ढंग से लिखा विदुषी गिरजा देवी जी के व्यक्तित्व पर आधारित एक पुस्तक है। 
    विदुषी गिरजा देवी जी के व्यक्तित्व के कई आयामों के बारे में बताया है लेखक ने।पुस्तक में गिरजा देवी जी के पान खाने की आदत से ले कर, उनके बचपन की कई क़िस्सों तक की बातें की गई है। 
   शुरुआत में लेखक ने गिरजा देवी जी की बनारस वाली आवास का चर्चा किया है की वहाँ कैसा माहौल होता था जब गिरजा देवी जीं रियाज़ करती थीं अथवा अपने विद्यार्थियों को संगीत की तालीम दिया करती थीं।इस पुस्तक में इनकी गाई गयीं कई चर्चित बंदिशों की भी चर्चा है जैसे- अप्पा की गाई बहुप्रशंसित चैती- "एहीं ठैंया मोतिया हेराय गईली रामा, कहवाँ मैं ढूढूँ"।गिरजा देवी जीं जिन गायकों अवं गायिकाओं से प्रेरित थी उनमें डी॰वी॰ पलुसकर, केसरबाई केरकर, रसूलन बाई जैसे दिग्गज मजूद हैं। इस पुस्तक में गिरजा देवी ने यह भी बताया है की क्यों वे इन दिग्गजों से प्रभावित थीं। अप्पा के तालीम देने की तरीक़े के बारे में भी बताया गया है,कैसे वे बंदिश की अदाएगी के बारे अपने शिस्यों को बड़े प्यार से समझाती हैं।दादरा, टप्पा , ख़याल, ध्रुपद, धम्मार सभी विधाओं की तालीम देती हैं अप्पा। गिरजा देवी जीं के लिए कोई भी राग ज़्यादा प्रिय नहीं, किंतु वे राग भैरव को सबसे अधिक गातीं हैं। उन्हें भैरव में गाई जाने वालीं बंदिशें बेहद पसंद हैं। अप्पा को काशी प्रिय है और वे शिव जी की उपासिका हैं। और मान्यता ऐसी है की भगवान शिव की प्रिय राग भैरव है इसलिए गिरजा देवी जी को भी यह राग से काफ़ी लगाव है। गिरजा देवी जीं का मानना है कि गायन में भावों की सरलता ही उनकी गायकी को सबसे भिन्न बनाती है। ऐसी कई बातें हैं इस पुस्तक में विदुषी गिरजा देवी जीं के बारे में जो पहली बार हम जैसे संगीत-प्रेमी के सामने आयीं हैं इस पुस्तक के माध्यम से।
   पुस्तक के अंतिम भाग में विदुषी गिरजा देवी जी से लेखक की वार्तालाप है, जिसमें अप्पा जी ने अपने बारे में कई रोचक बातें बताईं हैं। लोक गायन से लेकर शास्त्रीय गायक तक, गुरु- शिष्य परम्परा से लेकर अप्पा की पसंदीदा बंदिशों तक सभी पर चर्चा की गयी हैं इस वार्तालाप में।
  हर संगीत प्रेमी को निश्चित ही इस पुस्तक को पढ़ना चाहिए। बहुत कुछ नया जानने को मिल सकता है इस दिग्गज विदुषी और शास्त्रीय संगीत के विषय में।।

Thursday, 8 September 2016

सपने सच होते हैं...

मैं क्या गाऊँ?  कैसे गाऊँ?  कुछ समझ नहीं आ रहा।और ऐसा हो भी क्यों ना? आख़िर इतने बड़े-बड़े संगीत के दिग्गज जो सामने बैठे हैं। यह किसी सपने से कम नहीं।पंडित नरेंद्र नाथ धर, पंडित ओमकर दादरकर, उस्ताद अकरम खान और मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान जैसे दिग्गज मेरे सामने बैठे हैं और इस से भी बड़ी बात तो यह की यह सब अपनी प्रस्तुतियाँ इसी मंच पर देंगे जिसपर अभी मैं बैठा हूँ।मैं गाने बैठा हूँ और मेरे साथ संगत कर रहे तबले पर पंडित संजय अधिकारी और हार्मोनीयम पर पंडित हिरणमय मित्र।बचपन से ही मैंने इन्हें पंडित अजय चक्रबर्ती,कभी विदुषी गिरजा देवी,तो कभी अपने गुरु जी के साथ संगत करते देखता आया हूँ।आज ऐसा लग रहा था जैसे मेरा बचपन से देखा हुआ सपना सच हो रहा हो।वो सपना जो मैं हर-बार देखता था जब भी किसी बड़े संगीत के कार्यक्रम में जाया करता था।हमेशा सोचता था क्या मैं भी कभी ऐसे गा पाउँगा? आज लग रहा था वो सब सच होने वाला था।
    आज मुझे कलाम साहब की कही हुई -"आपका सपना सच हो, इसके लिए जरूरी है कि आप सपना देखें।" पंक्ति का अर्थ समझ आ रहा है।अगर कोई सपना देखे और उसके अनुरूप कार्य करे तो निश्चित ही वह पूरा होगा।छोटे शहर-क़सबे से होना किसी भी तरह से रुकावट नहीं बन सकता।अब देख़ये न अभी-अभी रीयो अलिम्पिक्स ख़त्म हुआ है और दीपा कर्मकार जैसी जिमनास्ट जिसने दुनिया भर में ख़ुद की पहचान बनाई,आती हैं भी तो कहाँ से? त्रिपुरा से! एक सुदूर, उत्तर-पूर्वी राज्य,एक ऐसा राज्य जिसे पिछडा राज्य माना जाता।किंतु क्या उस पिछड़े राज्य से होना कहीं भी दीपा के लिए रुकावट बना?
    अब आइए संगीत की दुनिया से बात करें तो शायद ही ऐसा कोई होगा जो उस्ताद बिस्मिल्ला खान को नहीं जनता होगा।ऐसा व्यक्ति जिसने शहनाई जैसे वाद्य को दुनियाभर में केवल पहचान ही नहीं दिलाई बल्कि लोगों का उस वाद्य के प्रति नज़रिया भी बदल दिया।क्या आप जानते हैं इनकी जन्म भूमि क्या थी?ये और कहीं नहीं बल्कि बिहार के छोटे से ज़िले डुमराव से थे।क्या इनके लिए भी छोटे,अविकसित ज़िले से होना कहीं भी बाधा बना?
   एसे अनेकों उदाहरण हैं कितने गिनाओ? ये बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं अगर आप किसी बड़े ख़ानदान से हैं, किसी बड़े जगह से हैं तब ही आप इन क्षेत्रों में कामयाब हो सकते।जरुरत है तो बस लोगों को अपनी नज़रिया को बदलने की। आज मैं अपने कक्षा के कुछ मित्रों से बात कर रहा था की वो आगे अपनी जिंदिगी में क्या सपने देखते हैं तो मैंने यह पाया ज़्यादातर लोग डॉक्टर,इंजिनीर जैसे परम्परागत क्षेत्रों में जाना चाहते।लोगों के बीच एक ऐसी अवधारणा है केवल यही सब हैं जिनमे जा कर बच्चे कामयाब हो सकते।आज कल के विद्यालयों से कई आईआईटियन्स,डॉक्टर निकलते लेकिन मैं पूछता हूँ क्यों नहीं कोई संगीतकार,पेंटर,डान्सर,लेखक निकलता? ऐसा इसलिए कि ज़्यादातर विद्यालयों में इन सब विधाओं पर ध्यान और प्रोत्साहन  नहीं दिया जाता।
   मैंने हाल में ही यूटूब पर एक विडीओ देखा जिसमें श्री राजदीप सरदेसाई बिहार का दौरा कर रहे हैं और उन्होंने बिहार के किशोरों से भी बातें की।मुझे जान कर आश्चर्य हुआ कि यहाँ भी सभी सिर्फ़ परम्परागत कैरियर में आगे जाना चाह रहे हैं।ऐसा कोई नहीं जो संगीत,नृत्य,लेखनी,अदाकारी जैसे विधाओं में आगे जाना चाहता हो।अगर कोई इन सब विधाओं पर ध्यान नहीं देगा तो आगे चल कर ये सब समाज से विलुप्त हो जाएँगी।जरुरत है तो वैसे किशोरों को बढ़ावा देने की जिनमे कुछ भी ईश्वर प्रदत हुनर मौजूद हों।उन्हें सही मार्गदर्शन प्रदान करनी की जिससे उन्हें ऐसा लगे कि इन विधाओं में भी आगे बढ़ा जा सकता है, कुछ किया जा सकता है।
        आज जब हमारे प्रधान मंत्री "कौशल विकास" को ले कर काफ़ी सक्रिय हैं तो मैं पूछता हूँ क्या किशोरों में मौजूद ईश्वर प्रदत कौशलों को विकसित करने की ज़रूरत नहीं? क्या उन्हें सही दिशा, मार्गदर्शन देने की ज़रूरत नहीं? आख़िर इन सब को कौशल विकास में क्यों नहीं सम्मलित जाता? यक़ीन मानये अगर किशोरों के हुनरों को सही दिशा दी जाए तो हमारे देश के भी खाते में कई अलिम्पिक पदक आ सकते हैं।हमारे देश से और भी कई अमृता शेरगिल जैसे पेंटर निकल सकते।
 जब मैं रीऐलिटी शोज़ देखता तब पता चलता की हमारे देश मैं कई हुनर मौजूद हैं।लेकिन यहाँ भी ज़्यादातर रीऐलिटी शोज़ सिर्फ़ फ़िल्मी गानों के लिए होते।शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा देने के लिए तो कोई मंच ही नहीं।
   यहाँ मैं आई॰टी॰सी॰एसआरए का ज़िक्र करना चाहूँगा। आईटीसी जो की मुख्यत एक सिगरट्टे बनाने की कम्पनी है उसने अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी और ऐसी विधाओं को बढ़ावा देने के लिए एक संगीत गुरुकुल खोल रखा है जिसमें भारत के कई दिग्गज गुरु पं अजय चक्रबर्ती से लेकर विदुषी गिरजा देवी, मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान से ले कर पं ओमकर दादरकर तक, जैसे गुरु कई संगीत में रुचि रखने वाले बच्चों को तालीम दे रहे हैं।तो मैं पूछता हूँ बाक़ी कम्पनियों को क्या इन विधाओं को बढ़ावा देने के लिए ख़ास कर छोटे शहरों में खुल कर आगे नहीं आना चाहिए?
आज कल छोटे शहरों में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम न के बराबर होते हैं।ऐसा नहीं है की मैं सिर्फ़ संगीत की बात कर रहा स्पोर्ट्स,पेंटिंग,नृत्य सब विधाओं की कुछ ऐसी ही स्थिती है।
   इस तरह की विधाओं के प्रति प्रत्येक परिवार, समाज,विद्यालय और सरकार इन तमाम स्तरों पर सोच बदलने की अवयस्कता है और किशोरों में ईश्वर प्रदत इन कौशलों को तराशने के लिए सही दिशा, सही मार्गदर्शन, वातावरण और आधार भूत संरचना देने की आव्यशक्ता है ताकि अपने सपनों को साकार करने की दिशा में एक विश्वास के साथ क़दम आगे बढ़ा सकें।यक़ीन मानिए अगर आपके पास सपना है,जुनून है,अनुशासित रियाज़ या अभ्यास है आपको अपने सपने को साकार करने में कोई बाधा नहीं बन सकता।सपना और जुनून बिना किसी संरक्षण के आदि काल में भी साकार हुए हैं। हाँ मैं बात कर रहा हुँ महाभारत काल के महान धनुनर्ध एकलव्य की।हाँ ये सत्य है की शून्य से शिखर तक की यात्रा को काफ़ी दुर्गम डगर से गुज़रना परता है।
  और देख़ये कलाम साहब, जिन्हें मैं अपना आदर्श मानता उन्होंने ने भी ऐसा ही कुछ कहा है-
   "मेरा संदेश, खास तौर पर युवा पीढ़ी के लिए यह है कि उनमें हिम्मत हो कि वह कुछ अलग सोच सकें, हिम्मत हो कि वह कुछ खोज सकें, नए रास्तों पर चलने की हिम्मत हो, जो असंभव हो उसे खोज सकें और मुसीबतों को जीत सके और सफलता हासिल कर सके।।"

Sunday, 15 May 2016

आज ध्रुपद और ठुमरी की बात !

Pt Umakant Gundecha 
यह बिता सप्ताह मेरे जैसे संगीत प्रेमी के लिए बहुत ख़ास था।आपलोगों ने तो पंडित उमाकांत गुंडेचा और अप्पा जी (विदुषी गिरजा देवी जी ) का नाम सुना ही होगा। एक सुप्रसिद्ध ध्रुपदिया तो एक प्रसिद्ध ठुमरी गायिका। इन दोनों का जन्मदिन इस बीते सप्ताह के आठ तारीख़ को था। 

पहले मैं बात ध्रुपद की करूँगा।ध्रुपद शास्त्रीय संगीत की पुरातन परम्परा है और ख़याल, ठुमरी आदि की उत्पत्ति इसी से मानी गयी है। ध्रुपद एक आध्यात्मिक और गम्भीर प्रकृति का संगीत है जिसमें श्रोताओं को एक अद्भुत शांति और सुकून मिलता है।ध्रुपद चार शैलियों में गाया जाता है -गौहर,डागर ,खनधार और नौहर।

डागरवाणी  ध्रुपद शैली के आज के एक सुप्रसिद्ध ध्रुपदियों में से एक पंडित उमाकांत गुंडेचा की मैं बात करना चाहूँगा।  इन्हें २०१२ में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से नवाज़ा गया है।इन्होंने अपनी संगीत की शिक्षा उस्ताद ज़ीया फरुद्दीन डागर और उस्ताद ज़ीया मोहिद्दीन डागर से ली है। मैं जब भी इनकी आवाज़ में राग यमन की नोम-तोम अलाप सुनता तो रोम रोम पुलकित हो जाता है। 

इन्होंने ध्रुपद गायकी को लोकप्रिय  करने के लिए भोपाल में एक ध्रुपद केंद्र नाम से एक गुरुकुल खोल रखा है जिसमें कई देश -विदेश के बच्चे ध्रुपद की तालीम  लेते हैं। 

पंडित जी ने तुलसीदास  के पदों को इस प्रकार कर्णप्रिय बना के लोगों के बीच ध्रुपद शैली में प्रस्तुत किया है की ये आज काफ़ी लोकप्रिय हो गये है।इन्होंने देश - विदेश में कई बड़े संगीत सम्मेलनों में अपनी प्रस्तुति दे कर ध्रुपद को लोकप्रिय करने का अनवरत प्रयास किया है।

अब बात ठुमरी की।ठुमरी भारतीय संगीत की एक गायन शैली है जिसमें रस,रंग और भाव  की प्रधानता होती है। इसकी बंदिशें ज़्यादतर शृंगार रस में होती हैं।अगर ठुमरी की बात करें तो मन अपने आप विदुषी गिरजा देवी जी की मधुर आवाज़ में डूब जाती है। बाबुल मोरा नेहर छूटा जाए उनकी आवाज़ में एक बहुत प्रसिद्ध ठुमरी है। गिरजा देवी जी का जन्म वाराणसी में  हुआ था। इन्होंने अपनी संगीत की शिक्षा श्री सरज़ू  प्रसाद मिश्र  से ली । ये बनारस घराने से आती हैं और अभी ये कोलकाता के आइटीसी एसआरए में गुरु है।    
Vidushi Girja Devi


मैंने तो इन्हें कभी लाइव नहीं सुना किंतु इनके देवीय व्यक्तित्व को ज़रूर देखा जब मैं आइटीसी के वार्षिक संगीत सम्मेलन में ४ वर्ष पूर्व गया था। ठुमरी के साथ साथ इन्हें ख़याल,टप्पा ,दादरा ,होली आदि गाने में भी महारथ हासिल है।२०१५ में भारत सरकार ने इन्हें पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया।बनारस में पली-बढ़ी विदुषी गिरजा देवी की आवाज़ को सुनकर मुझे अंग्रेज़ी का एक शब्द "listener's feast" बिलकुल सटीक लगता इनके मधुर आवाज़ के लिए।

एसे महान गुणीजनों को मेरा सत-सत नमन।संगीत पर और करेंगे बातें अगली बार जब मिलेंगे हम।

Music Has No Boundaries...

One thing which can’t be stopped from travelling to a different country without a visa or passport is- Art and Music. I will talk about ...