Sunday 25 September 2016

बिस्मिल्ला की शहनाई ...

बनारस की सुबह, गंगा का कल-कल बहता पानी, सूर्योदय की हल्की हल्की लालिमा,वातावरण में एक अद्भुत शांति और सुकून और उस गंगा के किनारे से आती हुई शहनाई की मधुर आवाज़।ऐसा लगता जैसे कोई गंगा को ही शहनाई सुना रहा हो।हाँ!! यह शहनाई और कोई नहीं बल्कि उस्ताद बिस्मिल्ला खान सुना रहे होते थे।पद्म श्री,पद्म भूषण,पद्म विभूषण, भारत रत्न जैसे सभी पद्म पुरुष्कारों से जिन्हें सम्मानित किया गया था।ऐसा नाम जो शहनाई का पर्याय सा बन चुका था।उस्ताद जी ऐसे थे जिन्होंने शहनाई को एक शादी-ब्याह में बजाए जाने वाले वाद्य से बढा कर एक शास्त्रीय संगीत के वाद्य के रूप में स्थापित किया।अपने चाचा अली बख्श 'विलायती' साहब से उस्ताद जी ने अपनी शहनाई की तालीम ली थी।उस्ताद जी का व्यक्तित्व बनारस के हर रंग से रंगा हुआ था।उनका व्यक्तित्व  गंगा-यमुना तहज़ीब को सही अर्थ में सार्थक करता था।बिस्मिल्ला खान साहब कहते थे-"संगीत वो चीज़ है जिसमें जात-पात नहीं देखा जाता,संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।"उनके लिए तो शहनाई बजाना अल्लाह के इबादत जैसा था।शहनाई को तो उन्होंने अपनी बेगम का दर्जा दे रखा था अपनी बेगम की मृत्यु के बाद।सहजता,सरलता और सुगमता ही उनकी फ़क़ीरी व्यक्तित्व की पहचान थी।
          उस्‍ताद जी  का जन्‍म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को एक मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खां और मिट्ठन बाई के यहां हुआ था और यह वर्ष हम उनकी शताब्दी मना रहे हैं।मैं यहाँ बिस्मिल्ला खान साहब से जुरी एक बड़ी ही रोचक बात  बताना चाहूँगा, उस्ताद जी की माँ कभी नहीं चाहती थीं की उनका पुत्र एक शहनाई वादक बने।ऐसा इसलिए क्यों की उनकी माँ इसे बहुत उपयुक्त काम नहीं समझती थी।उनका मानना था की शहनाईवादकों को सिर्फ़ शादी-ब्याह में बुलाया जाता था।१५ अगस्त १९४७ को जब हमारा देश आज़ाद हुआ तब उस्ताद जी की ही शहनाई की फूँक लाल क़िले पर गूँज रही थी तब से ये एक प्रथा सी बन गयी की हर आज़ादी दिवस पर लाल क़िले पर ध्वजारोहन के बाद उस्ताद जी की शहनाई बजाई जाएगी।उस्ताद जी ने वैसे  दौर में भी गाना-बजाना किया जब की इसको सम्‍मान की निगाह से नहीं देखा जाता था, तब ख़ां साहब ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनें बजा कर शहनाई जैसे वाद्य को एक देश-
विदेश में एक अलग ही पहचान दिलाई।
   शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-
तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।..
    उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खान की शहनाई की धुन बनारस के गंगा घाट से निकलकर दुनिया के कई देशों में बिखरती रही। उनकी शहनाई अमेरिका,एशिया,अफ़्रीका जैसे सभी महाद्वीपों में गूँजी।उनकी शहनाई की गूंज से फिल्‍मी दुनिया भी  अछूती नहीं रही। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें बजाईं। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म‘स्वदेश’ के गीत‘ये जो देश है तेरा’में शहनाई की मधुर धुन बिखेरी।उनकी मरते दम तक यह ख़्वाहिश थी कि वो कभी इंडिया गेट पर शहनाई बजाएँ किंतु यह ख़्वाहिश उनकी पूरी न हो सकी।यक़ीन मानिए उनकी व्यक्तित्व,उनकी तहज़ीब,उनकी सोच, उनकी संगीत जो हर भेद-विभेद से ऊपर रहा। आज की परिस्थितियाँ उन्हें और उनकी व्यक्तित्व को और भी प्रासंगिक बना दिया है।
     

Thursday 8 September 2016

सपने सच होते हैं...

मैं क्या गाऊँ?  कैसे गाऊँ?  कुछ समझ नहीं आ रहा।और ऐसा हो भी क्यों ना? आख़िर इतने बड़े-बड़े संगीत के दिग्गज जो सामने बैठे हैं। यह किसी सपने से कम नहीं।पंडित नरेंद्र नाथ धर, पंडित ओमकर दादरकर, उस्ताद अकरम खान और मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान जैसे दिग्गज मेरे सामने बैठे हैं और इस से भी बड़ी बात तो यह की यह सब अपनी प्रस्तुतियाँ इसी मंच पर देंगे जिसपर अभी मैं बैठा हूँ।मैं गाने बैठा हूँ और मेरे साथ संगत कर रहे तबले पर पंडित संजय अधिकारी और हार्मोनीयम पर पंडित हिरणमय मित्र।बचपन से ही मैंने इन्हें पंडित अजय चक्रबर्ती,कभी विदुषी गिरजा देवी,तो कभी अपने गुरु जी के साथ संगत करते देखता आया हूँ।आज ऐसा लग रहा था जैसे मेरा बचपन से देखा हुआ सपना सच हो रहा हो।वो सपना जो मैं हर-बार देखता था जब भी किसी बड़े संगीत के कार्यक्रम में जाया करता था।हमेशा सोचता था क्या मैं भी कभी ऐसे गा पाउँगा? आज लग रहा था वो सब सच होने वाला था।
    आज मुझे कलाम साहब की कही हुई -"आपका सपना सच हो, इसके लिए जरूरी है कि आप सपना देखें।" पंक्ति का अर्थ समझ आ रहा है।अगर कोई सपना देखे और उसके अनुरूप कार्य करे तो निश्चित ही वह पूरा होगा।छोटे शहर-क़सबे से होना किसी भी तरह से रुकावट नहीं बन सकता।अब देख़ये न अभी-अभी रीयो अलिम्पिक्स ख़त्म हुआ है और दीपा कर्मकार जैसी जिमनास्ट जिसने दुनिया भर में ख़ुद की पहचान बनाई,आती हैं भी तो कहाँ से? त्रिपुरा से! एक सुदूर, उत्तर-पूर्वी राज्य,एक ऐसा राज्य जिसे पिछडा राज्य माना जाता।किंतु क्या उस पिछड़े राज्य से होना कहीं भी दीपा के लिए रुकावट बना?
    अब आइए संगीत की दुनिया से बात करें तो शायद ही ऐसा कोई होगा जो उस्ताद बिस्मिल्ला खान को नहीं जनता होगा।ऐसा व्यक्ति जिसने शहनाई जैसे वाद्य को दुनियाभर में केवल पहचान ही नहीं दिलाई बल्कि लोगों का उस वाद्य के प्रति नज़रिया भी बदल दिया।क्या आप जानते हैं इनकी जन्म भूमि क्या थी?ये और कहीं नहीं बल्कि बिहार के छोटे से ज़िले डुमराव से थे।क्या इनके लिए भी छोटे,अविकसित ज़िले से होना कहीं भी बाधा बना?
   एसे अनेकों उदाहरण हैं कितने गिनाओ? ये बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं अगर आप किसी बड़े ख़ानदान से हैं, किसी बड़े जगह से हैं तब ही आप इन क्षेत्रों में कामयाब हो सकते।जरुरत है तो बस लोगों को अपनी नज़रिया को बदलने की। आज मैं अपने कक्षा के कुछ मित्रों से बात कर रहा था की वो आगे अपनी जिंदिगी में क्या सपने देखते हैं तो मैंने यह पाया ज़्यादातर लोग डॉक्टर,इंजिनीर जैसे परम्परागत क्षेत्रों में जाना चाहते।लोगों के बीच एक ऐसी अवधारणा है केवल यही सब हैं जिनमे जा कर बच्चे कामयाब हो सकते।आज कल के विद्यालयों से कई आईआईटियन्स,डॉक्टर निकलते लेकिन मैं पूछता हूँ क्यों नहीं कोई संगीतकार,पेंटर,डान्सर,लेखक निकलता? ऐसा इसलिए कि ज़्यादातर विद्यालयों में इन सब विधाओं पर ध्यान और प्रोत्साहन  नहीं दिया जाता।
   मैंने हाल में ही यूटूब पर एक विडीओ देखा जिसमें श्री राजदीप सरदेसाई बिहार का दौरा कर रहे हैं और उन्होंने बिहार के किशोरों से भी बातें की।मुझे जान कर आश्चर्य हुआ कि यहाँ भी सभी सिर्फ़ परम्परागत कैरियर में आगे जाना चाह रहे हैं।ऐसा कोई नहीं जो संगीत,नृत्य,लेखनी,अदाकारी जैसे विधाओं में आगे जाना चाहता हो।अगर कोई इन सब विधाओं पर ध्यान नहीं देगा तो आगे चल कर ये सब समाज से विलुप्त हो जाएँगी।जरुरत है तो वैसे किशोरों को बढ़ावा देने की जिनमे कुछ भी ईश्वर प्रदत हुनर मौजूद हों।उन्हें सही मार्गदर्शन प्रदान करनी की जिससे उन्हें ऐसा लगे कि इन विधाओं में भी आगे बढ़ा जा सकता है, कुछ किया जा सकता है।
        आज जब हमारे प्रधान मंत्री "कौशल विकास" को ले कर काफ़ी सक्रिय हैं तो मैं पूछता हूँ क्या किशोरों में मौजूद ईश्वर प्रदत कौशलों को विकसित करने की ज़रूरत नहीं? क्या उन्हें सही दिशा, मार्गदर्शन देने की ज़रूरत नहीं? आख़िर इन सब को कौशल विकास में क्यों नहीं सम्मलित जाता? यक़ीन मानये अगर किशोरों के हुनरों को सही दिशा दी जाए तो हमारे देश के भी खाते में कई अलिम्पिक पदक आ सकते हैं।हमारे देश से और भी कई अमृता शेरगिल जैसे पेंटर निकल सकते।
 जब मैं रीऐलिटी शोज़ देखता तब पता चलता की हमारे देश मैं कई हुनर मौजूद हैं।लेकिन यहाँ भी ज़्यादातर रीऐलिटी शोज़ सिर्फ़ फ़िल्मी गानों के लिए होते।शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा देने के लिए तो कोई मंच ही नहीं।
   यहाँ मैं आई॰टी॰सी॰एसआरए का ज़िक्र करना चाहूँगा। आईटीसी जो की मुख्यत एक सिगरट्टे बनाने की कम्पनी है उसने अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी और ऐसी विधाओं को बढ़ावा देने के लिए एक संगीत गुरुकुल खोल रखा है जिसमें भारत के कई दिग्गज गुरु पं अजय चक्रबर्ती से लेकर विदुषी गिरजा देवी, मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान से ले कर पं ओमकर दादरकर तक, जैसे गुरु कई संगीत में रुचि रखने वाले बच्चों को तालीम दे रहे हैं।तो मैं पूछता हूँ बाक़ी कम्पनियों को क्या इन विधाओं को बढ़ावा देने के लिए ख़ास कर छोटे शहरों में खुल कर आगे नहीं आना चाहिए?
आज कल छोटे शहरों में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम न के बराबर होते हैं।ऐसा नहीं है की मैं सिर्फ़ संगीत की बात कर रहा स्पोर्ट्स,पेंटिंग,नृत्य सब विधाओं की कुछ ऐसी ही स्थिती है।
   इस तरह की विधाओं के प्रति प्रत्येक परिवार, समाज,विद्यालय और सरकार इन तमाम स्तरों पर सोच बदलने की अवयस्कता है और किशोरों में ईश्वर प्रदत इन कौशलों को तराशने के लिए सही दिशा, सही मार्गदर्शन, वातावरण और आधार भूत संरचना देने की आव्यशक्ता है ताकि अपने सपनों को साकार करने की दिशा में एक विश्वास के साथ क़दम आगे बढ़ा सकें।यक़ीन मानिए अगर आपके पास सपना है,जुनून है,अनुशासित रियाज़ या अभ्यास है आपको अपने सपने को साकार करने में कोई बाधा नहीं बन सकता।सपना और जुनून बिना किसी संरक्षण के आदि काल में भी साकार हुए हैं। हाँ मैं बात कर रहा हुँ महाभारत काल के महान धनुनर्ध एकलव्य की।हाँ ये सत्य है की शून्य से शिखर तक की यात्रा को काफ़ी दुर्गम डगर से गुज़रना परता है।
  और देख़ये कलाम साहब, जिन्हें मैं अपना आदर्श मानता उन्होंने ने भी ऐसा ही कुछ कहा है-
   "मेरा संदेश, खास तौर पर युवा पीढ़ी के लिए यह है कि उनमें हिम्मत हो कि वह कुछ अलग सोच सकें, हिम्मत हो कि वह कुछ खोज सकें, नए रास्तों पर चलने की हिम्मत हो, जो असंभव हो उसे खोज सकें और मुसीबतों को जीत सके और सफलता हासिल कर सके।।"

Music Has No Boundaries...

One thing which can’t be stopped from travelling to a different country without a visa or passport is- Art and Music. I will talk about ...