"उड़ जाएगा हंस अकेला" कभी आपने यह बंदिश सुनी है? पंडित जी की आवाज़ में अगर सुनी हो तो आप ख़ुद ही समझ सकते हैं की मैं आज कैसी गायकी पर बातें करने जा रहा हूँ।
आज हिंदुस्तान के एक सर्वकालीन दिग्गज कलाकारों में से एक पं कुमार गंधर्व का जन्म-दिन है। वैसे तो वो अब हमारे बीच नहीं रहे किन्तु आज भी लोग उन्हें याद करते हैं उनके अलग गायन शैली को ले कर। क्योंकि उन्होंने अपनी गायन की एक अलग ही शैली बना ली थी इस कारण वे कई बार विवादों में
भी पड़े किंतु उनका ऐसा मानना था की वो एक रूढ़िवादी नहीं हैं और कुछ नया करना चाहते थे और इसी कारण उन्होंने कभी भी किसी घराने को नहीं अपनाया। उन्होंने अपनी संगीत की शिक्षा पं बी॰आर डेओढ़र से ली थी।पंडित जी एक अदभुत गायक तो थे की किंतु उसके साथ-साथ वे एक म्यूज़िकॉलॉजिस्ट भी थे। पंडित जी ने ख़याल के साथ- साथ निर्गुण भजन,लोक गीत आदि भी अपने ही अन्दाज़ में गा कर लोगों को अभिभूत किया है।इन्हें १९८८ में पद्मा भूषण और १९९० में पद्मा विभूषण से नवाज़ा गया है।इन्होंने राग गांधी-मल्हार की रचना भी की है जिसे इन्होंने पहली बार महात्मा गांधी के शताब्दी वर्ष पर आयोजित एक कार्यक्रम में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में लोगों के सामने गाया था। पंडित जी का मानना था-"राग बन जाते हैं,बनाये नहीं जाते।" अब बातों को आगे बढ़ाते हुए पंडित जी की गायकी पर चर्चा करते हैं की वह कैसे अन्य गायकों से भिन्न था।
भी पड़े किंतु उनका ऐसा मानना था की वो एक रूढ़िवादी नहीं हैं और कुछ नया करना चाहते थे और इसी कारण उन्होंने कभी भी किसी घराने को नहीं अपनाया। उन्होंने अपनी संगीत की शिक्षा पं बी॰आर डेओढ़र से ली थी।पंडित जी एक अदभुत गायक तो थे की किंतु उसके साथ-साथ वे एक म्यूज़िकॉलॉजिस्ट भी थे। पंडित जी ने ख़याल के साथ- साथ निर्गुण भजन,लोक गीत आदि भी अपने ही अन्दाज़ में गा कर लोगों को अभिभूत किया है।इन्हें १९८८ में पद्मा भूषण और १९९० में पद्मा विभूषण से नवाज़ा गया है।इन्होंने राग गांधी-मल्हार की रचना भी की है जिसे इन्होंने पहली बार महात्मा गांधी के शताब्दी वर्ष पर आयोजित एक कार्यक्रम में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में लोगों के सामने गाया था। पंडित जी का मानना था-"राग बन जाते हैं,बनाये नहीं जाते।" अब बातों को आगे बढ़ाते हुए पंडित जी की गायकी पर चर्चा करते हैं की वह कैसे अन्य गायकों से भिन्न था।
लोगों का मानना है कि उनकी गायकी की यह विशेषता थी कि वे स्वर-लय से पूरी ईमानदारी रखते हुए भी, अपनी गायकी को आक्रामक बनाते थे। उनकी गायकी की एक और विशेषता यह थी कि उस समय के गायकों के अपेक्षा पंडित जी की तानें काफ़ी तेज़ थीं। उनकी आवाज़ तो सुरीली थी ही किंतु साथ-साथ तानों में उनकी चपलता अदभुत थी। मैंने जितना पंडित जी को सुना उस से मैंने एक बात ज़रूर समझी की वे अपने गायन में मुख्यतः मध्य लय का इस्तेमाल करते थे जिसके कारण पंडित जी श्रोताओं को तुरंत ही अपनी गायकी की ओर आकर्षित कर लेते थे। कुछ ही देर में मानो सारा वातावरण संगीतमय हो जाता। पंडित जी अपनी गायकी में 'आ'कार का बहुत सीमित उपयोग किया करते थे और बोल-तान का भी ज़्यादा उपयोग नहीं करते थे।
सबसे अच्छी बात जिसके कारण पंडित जी की गायकी की ओर लोग आकर्षित होते थे वह थी पंडित जी की बंदिशों की भावनाओं को गायन के साथ जोड़ना। जैसे जब वे राग मेघ-मल्हार में "रितु बरखा आई" गाते थे तो श्रोताओं को ऐसी अनुभूति होती थी जैसे वे बारिश में भीग रहे हों।
ख्याल के साथ-साथ पंडित जी ने भारतीय संगीत के दो और प्रकार पर अपनी महारथ हासिल कर रखी है: तराना और टप्पा में। पंडित कुमार गंधर्व अपने आवाज़ के इस्तमाल करने के मामले में अब्दुल करीम खान साहब पर काफ़ी निर्भर थे। पंडित कुमार गंधर्व की बातें हों और उनके निर्गुणों की बातें न हों यह तो संभव ही नहीं। चाहे वो उनके द्वारा गाया गया-" उड़ जाएगा हंस अकेला" हो या "गुरु तो जीने" हो सब में ऐसा लगता जैसे ये बंदिशें इनके गले के लिए ही बनी हो।
पंडित जी पर सारी बातें एक साथ कर पाना तो संभव नहीं। आगे फिर संगीत पर चर्चा जारी रखेंगे।।
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