आज सुबह जब रियाज़ कर रहा था, उसी वक़्त मुझे अपने बचपन की याद आ गई जब मैं अपने दादा जी से मिलने देवघर (झारखण्ड ) गया था और वहां दादी माँ के कैसेटों के संकलन से सुबह -सुबह जौनपुरी की बंदिश ऐ रि फिरत एक दमदार आवाज़ में सुना.
उस वक़्त तक मैं राग से अनजान था, सुर का भी ज्ञान नहीं था लेकिन गीत सुनकर मैं डूब गया। गजब का आकर्षण था उस आवाज़ मे . बाद में दादी माँ ने बतलाया वो कोई और नहीं उनके पिता जी स्वर्गीय राजकुमार श्यामनन्द सिंह की आवाज़ है। मैं बहुत ख़ुश हुआ था।
बाद के वर्षों में जब मेरी थोड़ी और रूचि बढ़ी तो मैंने राजकुमार श्यामानन्द सिंह की आवाज़ में "दुःख हरो द्वारिकानाथ " को सुना और ऐसा लगा कि वो सच मे कितने दिल से द्वारिकानाथ को याद किया करते थे . जितनी बार इस भजन को सुनता उतना और सुनने का मन करता. यहीं से शास्त्रीय गायन से मेरा लगाव बढ़ा।
बाद में राजकुमार श्यामानन्द के बारे में ख़ूब सारी जानकारी इकट्ठा करने लगा। उनका जन्म 27 जुलाई 1916 को हुआ था.उन्होंने अपनी शुरुआती संगीत शिक्षा उस्ताद भीष्मदेव चटर्जी से ली थी.बाद के दिनों मे उस्ताद बच्चू खान साहब और पंडित भोलानाथ भट्ट से भी उन्होंने संगीत की शिक्षा ली थी.
जैसा की मेरे घर में पापा बताते हैं की उनकी दुःख हरो द्वारिकानाथ भजन को सुनकर केसरबाई जैसी गायिका ने उन्हें अपना गुरु बनाने की इच्छा जताई की थी.जब भी कोई इनके गाने को सुनता तो वो बस सुनता ही रह जाता था। सबसे खास बात इनके गाने की वो थी बंदिश की अदायगी .
वैसे मेरी दादी माँ यह भी बताती है की बाबा (राजकुमार श्यामनन्द सिंह) शिकार के भी बहुत शौक़ीन थे.वे स्पोर्ट्स मे भी उतनी ही रूचि रखते थे. मैं सोचता हूं कि बाबा एक जीवन में कितना कुछ कर गए। उनके बारे में सोचकर ही रोमांचित हो जाता हूं।
आज 9 अप्रैल 1994 के दिन ही उन्होंने गाते गाते ही अपने प्राण त्याग दिए थे. ये मेरा सौभाग्य है कि वो मेरे पापा के नाना जी थे. लेकिन मुझे इस बात का दुःख है की मै उनसे कभी मिल न सका ना उन्हें गाते सुन पाया . तो भी यह सोचकर गर्व होता है कि मैं उनके परिवार का हिस्सा हूं। वो सच मे एक गायक नहीं साधक थे.
उस वक़्त तक मैं राग से अनजान था, सुर का भी ज्ञान नहीं था लेकिन गीत सुनकर मैं डूब गया। गजब का आकर्षण था उस आवाज़ मे . बाद में दादी माँ ने बतलाया वो कोई और नहीं उनके पिता जी स्वर्गीय राजकुमार श्यामनन्द सिंह की आवाज़ है। मैं बहुत ख़ुश हुआ था।
बाद के वर्षों में जब मेरी थोड़ी और रूचि बढ़ी तो मैंने राजकुमार श्यामानन्द सिंह की आवाज़ में "दुःख हरो द्वारिकानाथ " को सुना और ऐसा लगा कि वो सच मे कितने दिल से द्वारिकानाथ को याद किया करते थे . जितनी बार इस भजन को सुनता उतना और सुनने का मन करता. यहीं से शास्त्रीय गायन से मेरा लगाव बढ़ा।
बाद में राजकुमार श्यामानन्द के बारे में ख़ूब सारी जानकारी इकट्ठा करने लगा। उनका जन्म 27 जुलाई 1916 को हुआ था.उन्होंने अपनी शुरुआती संगीत शिक्षा उस्ताद भीष्मदेव चटर्जी से ली थी.बाद के दिनों मे उस्ताद बच्चू खान साहब और पंडित भोलानाथ भट्ट से भी उन्होंने संगीत की शिक्षा ली थी.
जैसा की मेरे घर में पापा बताते हैं की उनकी दुःख हरो द्वारिकानाथ भजन को सुनकर केसरबाई जैसी गायिका ने उन्हें अपना गुरु बनाने की इच्छा जताई की थी.जब भी कोई इनके गाने को सुनता तो वो बस सुनता ही रह जाता था। सबसे खास बात इनके गाने की वो थी बंदिश की अदायगी .
वैसे मेरी दादी माँ यह भी बताती है की बाबा (राजकुमार श्यामनन्द सिंह) शिकार के भी बहुत शौक़ीन थे.वे स्पोर्ट्स मे भी उतनी ही रूचि रखते थे. मैं सोचता हूं कि बाबा एक जीवन में कितना कुछ कर गए। उनके बारे में सोचकर ही रोमांचित हो जाता हूं।
आज 9 अप्रैल 1994 के दिन ही उन्होंने गाते गाते ही अपने प्राण त्याग दिए थे. ये मेरा सौभाग्य है कि वो मेरे पापा के नाना जी थे. लेकिन मुझे इस बात का दुःख है की मै उनसे कभी मिल न सका ना उन्हें गाते सुन पाया . तो भी यह सोचकर गर्व होता है कि मैं उनके परिवार का हिस्सा हूं। वो सच मे एक गायक नहीं साधक थे.
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