Saturday, 16 July 2016

'जसराज' की 'जसरंगी'

मैंने बहुत सारी जुगलबंदीयाँ सुनी।चाहे वो उस्ताद राशिद खान और पंडित भीमसेन जोशी की हो या पंडित हरिप्रसाद चौरासिया और पंडित बालमुरलीकृष्ण की हो सब अपने आप में अदभुत थे।किंतु, आज मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसे जुगलबंदी की जिसमें एक गायक और गायिका अलग अलग स्केल,अलग अलग राग गाते हुए जुगलबंदी करते।कई बार तो वे बिलकुल अलग शैली गाने वाले और अलग घराने के भी होते।जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ "जसरंगी" की।जसरंगी पं जसराज की एक अवधारणा है।जसरंगी पहेली बार पुणे में गाया गया था।जसरंगी को ले कर पंडित जी की यह सोच है की "हवा-पानी, धरती-गगन, राधा-कृष्ण, शिव-शक्ति सब दो अलग-अलग इकाई हैं। जब दोनों मिलते हैं तो पूर्णता आती है। ऐसे ही महिला-पुरुष स्वर एक साथ जुगलबंदी करें तो शायद पूर्णता आए।"इस सोच में पंडित जी सफल भी रहे क्योंकि आज जब कभी मैं या कोई भी संगीत-प्रेमी इस अदभुत जुगलबंदी को सुनता है तो एक अदभुत अनुभूति होती है।

      एक ने राग नट भैरव का चित्रण किया तो दूसरे ने राग माधवंती का।दोनों को एक साथ सुनकर एक अदभुत
आनंद मिल रहा था।एक मेवाती घराने से आते तो दूसरी जयपुर घराने से।ये दोनों एक साथ इतनी ख़ूबसूरती से गा रहे थे की ये एहसास भी नहीं हो रहा था कि दोनों अलग-अलग राग गा रहे थे।इतना ही नहीं दोनों अलग-अलग स्केल पर भी गा रहे थे और तो और दोनों को अलग-अलग संगतकार भी संगत कर रहे थे।जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ विधुषी अश्विनी भिड़े और पंडित संजीव अभ्यंकर की।गायन शुरू करने से पहले जानकारी देते हुए यह बताया की यह जुगलबंदी मूरछाना पद्धति पर आधारित है। 
  
    बाद मैं मैंने पं रतन मोहन शर्मा और गरगी सिद्धांत जी की जसरंगी जुगलबंदी सुनी।इन दोनों ने भी राग जोग और वृंदावनी सारंग का अनूठा मिलन किया है।
वैसे तो अभी ये नया प्रयोग है।देख़ये आगे यह कितना लोकप्रिय होता है संगीत रसिकों के बीच।
और भी चर्चा करूँगा संगीत पर लेकिन आज नहीं फिर कभी।।

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