आज आषाढ़ मास की पूर्णिमा है और आज का दिन गुरुओं को समर्पित है।आज के दिन उनकी पूजा होती है। हाँ!आज दिन है गुरु पूर्णिमा का।सबसे पहले मैं उन सब को नमन करता हुँ जिनसे मैंने थोड़ा-बहुत भी कभी कुछ सीखा हो।
गुरु पूर्णिमा का दिन तो मेरे लिए या कहिये उन सभों के लिए और भी ख़ास हो जाता जो गुरु-शिष्य परम्परा से संगीत,नृत्य या और भी किसी चीज़ की शिक्षा ले रहे हैं।
गु शब्द का अर्थ-अंधकार और रु शब्द का अर्थ-प्रकाश होता है।हाँ! गुरु वो होता है जो शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है,असत्य से सत्य की ओर ले जाता है।अब मैं अपनी बात करता हूँ।बात उस वक़्त की है जब मैं ४ वर्ष
का था।उस वक़्त मुझे न बैठना आता था न ठीक से बोलना,उस समय मेरे गुरु जी श्री अमरनाथ झा ने मुझ में संगीत की समझ,राग-रागिनीयों की पहचान करवाई।और लय-ताल से भी मुझे अवगत करवाया।श्री अमरनाथ झा राजकुमार शायमानंद सिंह के शिष्य हैं।उनके गाने में सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह उनकी बंदिश की आदयगी है जो सम्भवत: उन्होंने अपने गुरु से सीखी।आज जितनी भी संगीत मुझ में है निसंदेह उसकी नींव इन्होंने ही रखी और इसके लिए मैं सदा इनका आभारी रहूँगा।
अब मैं बात करता हूँ उनकी जिनसे मैं अभी संगीत की शिक्षा ले रहा हूँ।हाँ! मैं बात कर रहा हुँ उस्ताद वसीम अहमद ख़ान की।अभी पिछले ही पोस्ट में मैंने उनके बारे में काफ़ी कुछ कहा।वो गुरु तो अच्छे हैं ही लेकिन साथ-साथ मुझे जो उनकी सबसे अच्छी बात लगती है वह है उनकी "व्यक्तित्व"।मुझे आज भी याद है जब मैंने उनसे तालीम लेनी शुरू ही की थी तब मैं ज़ोरदार बीमार पड़ा था,जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा था,तब उन्होंने मेरी कुशलता के लिए ख़ास नमाज़ अदा की।आज भी जब मैं उनसे तालीम लेने कोलकाता जाता हूँ तो संगीत सिखाने के साथ-साथ वो इस पर भी ध्यान देते की मेरे व्यक्तित्व का भी समग्र विकास हो।मेरे गुरु जी अच्छे कलाकार के साथ-साथ अच्छे गुरु भी हैं।उनका तालीम देने का तरीक़ा भी मुझे बहुत अच्छा लगता।
मैंने काफ़ी कुछ कह दिया अपने गुरुओं पर।बातें तो इतनी हैं की कभी ख़त्म ना हो इसलिए और बातें फिर कभी।एक बार फिर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मैं उन सब को प्रणाम करता हूँ जिनसे मैंने कुछ भी कभी भी सीखा हो।और अंत करूँगा मैं कबीर के इस दोहे से-
" सब धरती काग़ज़ करूँ,
लेखन बन रे
साथ समुद्र की मास करूँ,
गुरु गुण लिखा ना जाए।।"
गुरु पूर्णिमा का दिन तो मेरे लिए या कहिये उन सभों के लिए और भी ख़ास हो जाता जो गुरु-शिष्य परम्परा से संगीत,नृत्य या और भी किसी चीज़ की शिक्षा ले रहे हैं।
उस्ताद वसीम अहमद खान |
श्री अमरनाथ झा |
अब मैं बात करता हूँ उनकी जिनसे मैं अभी संगीत की शिक्षा ले रहा हूँ।हाँ! मैं बात कर रहा हुँ उस्ताद वसीम अहमद ख़ान की।अभी पिछले ही पोस्ट में मैंने उनके बारे में काफ़ी कुछ कहा।वो गुरु तो अच्छे हैं ही लेकिन साथ-साथ मुझे जो उनकी सबसे अच्छी बात लगती है वह है उनकी "व्यक्तित्व"।मुझे आज भी याद है जब मैंने उनसे तालीम लेनी शुरू ही की थी तब मैं ज़ोरदार बीमार पड़ा था,जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा था,तब उन्होंने मेरी कुशलता के लिए ख़ास नमाज़ अदा की।आज भी जब मैं उनसे तालीम लेने कोलकाता जाता हूँ तो संगीत सिखाने के साथ-साथ वो इस पर भी ध्यान देते की मेरे व्यक्तित्व का भी समग्र विकास हो।मेरे गुरु जी अच्छे कलाकार के साथ-साथ अच्छे गुरु भी हैं।उनका तालीम देने का तरीक़ा भी मुझे बहुत अच्छा लगता।
मैंने काफ़ी कुछ कह दिया अपने गुरुओं पर।बातें तो इतनी हैं की कभी ख़त्म ना हो इसलिए और बातें फिर कभी।एक बार फिर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मैं उन सब को प्रणाम करता हूँ जिनसे मैंने कुछ भी कभी भी सीखा हो।और अंत करूँगा मैं कबीर के इस दोहे से-
" सब धरती काग़ज़ करूँ,
लेखन बन रे
साथ समुद्र की मास करूँ,
गुरु गुण लिखा ना जाए।।"
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