मैंने बहुत सारी बातें की आज के कलाकारों पर,बहुत सारे पोस्ट लिखे उन लोगों पर और आगे भी उन पर चर्चा करता रहूँगा,लिखता रहूँगा।किंतु,आज मैं आपलोगों को ले चलता हुँ आज से १०० वर्ष पूर्व।तारीख़ २७ जुलाई का साल १९१६ और स्थान चम्पानगर में जन्म लिया एक महान बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने।एक ऐसा मानव जो गायक था ,साधक था,खिलाड़ी था,शिकारी था,जिसमें करुणा और संवेदना भी भरपूर थी।गाना उनके लिए पेशा न था, वव्यवसाय न था,संगीत तो उनके लिए बस एक जप था,तप था।जी हाँ मैं बात के रहा हुँ स्वर्गीय राजकुमार श्यमानंद सिंह की।आज उनकी शताब्दी जन्म तिथि मनायी जा रही है।उनके बारे में जितना सुनता हूँ उतना और ज़्यादा जान ने की इच्छा होती है।उन्होंने अपनी संगीत की तालीम उस्ताद भीष्मदेव चैटर्जी,पं भोला नाथ भट्ट,उस्ताद बच्चू खान जैसे तत्कालीन दिग्गजों से ली थी।उनके गाने की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह है उनकी बंदिश की अदायगी।जब भी मैं उनके द्वारा गाये भजन जैसे-"हम तुम्हें देख नंदलाल जिया करते हैं"या "दुःख हरो द्वारकानाथ" सुनता हूँ तो लगता है की कितने दिल से याद किया करते थे अपने श्याम को।ये भजनें महमहिमों के राज भवनों में गूंजा करती थीं तो चम्पानगर के किसी निर्धन की झोपडी भी इसकी साक्षी रह चुकी है।डा॰ज़ाकिर हूसेन,भारत के पूर्व राष्ट्रपति भी बाबा के गाने के क़ायल थे।महज ३२ वर्ष की आयु में उन्होंने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन जो प्रयाग संगीत समिति द्वारा आयोजित था उसमें उन्होंने अध्यक्षता की।वहाँ पर उनके द्वारा दिया भाषण शास्त्रीय संगीत पर अदभुत बिवेचना है और इस विधा के विभिन्न आयामों पर उनकी सोच को रेखांकित करता है।उनकी संगीत की व्याख्या की समझ भी अदभुत थी।उस वक़्त के शायद ही कोई संगीतकार होगा जो इनके चम्पानगर स्थित आवास पर न आया होगा।वे जन्म से तो राजा थे ही किंतु अपने कर्मों से वो साधक थे।जिनके लिए श्याम ही आदि थे और श्याम ही अंत थे। वो मेरे बाबा थे,मेरे पिता के नाना थे इससे भी बड़ी बात वो एक संगीतकार थे,संगीत के पुजारी थे।गाने की जब मैंने शुरुआत की थी तब मेरे मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ ये थे। आज भी जब मैं गाता हूँ तो उनकी यह पंक्ति मेरे ज़ेहन में रहती है-"रूह से गाओ गले से नहीं"। उनको जितना सुना और उनके बारे में जितना सुना निसंदेह वे एक मानव नहीं बल्कि एक महा मानव थे।आज उनकी शताब्दी मनायी जा रही है और उनको मेरा सत्-सत् नमन।।
Tuesday, 26 July 2016
'संगीत के पुजारी 'बाबा श्यामानन्द सिंह
मैंने बहुत सारी बातें की आज के कलाकारों पर,बहुत सारे पोस्ट लिखे उन लोगों पर और आगे भी उन पर चर्चा करता रहूँगा,लिखता रहूँगा।किंतु,आज मैं आपलोगों को ले चलता हुँ आज से १०० वर्ष पूर्व।तारीख़ २७ जुलाई का साल १९१६ और स्थान चम्पानगर में जन्म लिया एक महान बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने।एक ऐसा मानव जो गायक था ,साधक था,खिलाड़ी था,शिकारी था,जिसमें करुणा और संवेदना भी भरपूर थी।गाना उनके लिए पेशा न था, वव्यवसाय न था,संगीत तो उनके लिए बस एक जप था,तप था।जी हाँ मैं बात के रहा हुँ स्वर्गीय राजकुमार श्यमानंद सिंह की।आज उनकी शताब्दी जन्म तिथि मनायी जा रही है।उनके बारे में जितना सुनता हूँ उतना और ज़्यादा जान ने की इच्छा होती है।उन्होंने अपनी संगीत की तालीम उस्ताद भीष्मदेव चैटर्जी,पं भोला नाथ भट्ट,उस्ताद बच्चू खान जैसे तत्कालीन दिग्गजों से ली थी।उनके गाने की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह है उनकी बंदिश की अदायगी।जब भी मैं उनके द्वारा गाये भजन जैसे-"हम तुम्हें देख नंदलाल जिया करते हैं"या "दुःख हरो द्वारकानाथ" सुनता हूँ तो लगता है की कितने दिल से याद किया करते थे अपने श्याम को।ये भजनें महमहिमों के राज भवनों में गूंजा करती थीं तो चम्पानगर के किसी निर्धन की झोपडी भी इसकी साक्षी रह चुकी है।डा॰ज़ाकिर हूसेन,भारत के पूर्व राष्ट्रपति भी बाबा के गाने के क़ायल थे।महज ३२ वर्ष की आयु में उन्होंने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन जो प्रयाग संगीत समिति द्वारा आयोजित था उसमें उन्होंने अध्यक्षता की।वहाँ पर उनके द्वारा दिया भाषण शास्त्रीय संगीत पर अदभुत बिवेचना है और इस विधा के विभिन्न आयामों पर उनकी सोच को रेखांकित करता है।उनकी संगीत की व्याख्या की समझ भी अदभुत थी।उस वक़्त के शायद ही कोई संगीतकार होगा जो इनके चम्पानगर स्थित आवास पर न आया होगा।वे जन्म से तो राजा थे ही किंतु अपने कर्मों से वो साधक थे।जिनके लिए श्याम ही आदि थे और श्याम ही अंत थे। वो मेरे बाबा थे,मेरे पिता के नाना थे इससे भी बड़ी बात वो एक संगीतकार थे,संगीत के पुजारी थे।गाने की जब मैंने शुरुआत की थी तब मेरे मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ ये थे। आज भी जब मैं गाता हूँ तो उनकी यह पंक्ति मेरे ज़ेहन में रहती है-"रूह से गाओ गले से नहीं"। उनको जितना सुना और उनके बारे में जितना सुना निसंदेह वे एक मानव नहीं बल्कि एक महा मानव थे।आज उनकी शताब्दी मनायी जा रही है और उनको मेरा सत्-सत् नमन।।
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