Sunday, 19 June 2016

पूर्णिया से भोपाल, बस गीत और संगीत...

बहुत सारा शहर देख लिया,घूम लिया अपनी १७ वर्ष की उम्र में।कभी इलाज के चक्कर में तो कभी संगीत के क्रम में।
    इस बार भोपाल भी देख लिया-घूम लिया।पर इस बार न तो इलाज कारण था ना ही संगीत।पर इस बार तो गर्मी की छुट्टियों का आनंद ही एक मात्र कारण था।
     भोपाल शहर अपने-आप में अदभुत है।शांत,सुंदर झीलों का शहर भोपाल भारत के सुंदरतम शहरों में गिना जाता है।और हो भी क्यों ना? मध्य प्रदेश को भारत का ह्रदय कहा जाता है और भोपाल तो मध्य प्रदेश का ही ह्रदय है।भोपाल से १८० की.मी स्थित जहाँ उज्जैन है जो की हिंदुओं का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है शिप्रा नदी के किनारे अवस्थित द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।वहीं भोपाल में ताज-उल
झीलों के शहर का एक झील
मस्जिद है जो की भारत के सबसे विशाल मस्जिदों में से एक है। 
भोपाल शहर गंगा-यमुनी तहज़ीब का एक अनूठा उदाहरण है।
         भोपाल आज विश्व में एक और कारण से जाना जाता है और वह है ११८४ में अमरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव से लगभग बीस हजार लोग का मारा जाना।ये इतनी बड़ी दुर्घटना थी की इसका प्रभाव आज भी वायु प्रदूषण,जल प्रदूषण के रूप में जारी है।
  वैसे भोपाल शहर अपने पर्यटन स्थलों के लिए जाना जाता है।भोपाल से 28 किमी दूर स्थित भोजपुर जो की भगवान शिव को समर्पित भोजेश्वर मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
  भोपाल स्थित भारत भवन के बारे में तो क्या कहूँ? साहित्य, कला और संगीत का अदभुत संगम यहाँ किसी को देखने को मिल सकता है।भारत भवन पर विस्तृत बात-चीत अगली बार करूँगा।
  भोपाल स्थित जन-जातिये (tribal museam)संग्रहालय
एक अनोखा फ़्यूज़न है माडर्न आर्ट और जन-जातीये आर्ट का।कोई यह संग्रहालय
देख ले तो उसे जन-जातियों के रहन-सहन, उनके खान-पान,और उनके सांस्कृतिक विरासत की अदभुत झलक देखने को मिलती है।
जन जातियों की संगीत
जन-जातियों के खेलों के बारे में काफ़ी कुछ जानने को मिला।रक्कु,पिटटो,क़ुस्ती,मछली पकड़ने के खेल आदि कई जन-जातीय खेलों के बारे में जानने को मिला।मेघनाध खम्भ जो की जो की भिल समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है यह खम्भ मेघनाद पूजा में भीलों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है।उसकी भी एक कला-कृति मुझे यहाँ देखने को मिली।इन जन-जातियों से जुड़ी हुई अदभुत सांस्कृतिक और कलात्मक पहलुओं को सहज-सँवार कर रखने की जरुवत है जो की यह संग्रहालय बख़ूबी कर रहा है और हम जैसे लोगों को इस सब के बारे में अवगत करा रहा है।

  संगीत के बिना तो मेरी हर यात्रा अधूरी रहती है। उज्जैन जाने के रास्ते में मैं देवास से गुज़रा।ये वही जगह है जिसने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को एक दिग्गज संगीतकार दिया।जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ पं कुमार गंधर्व की।उन्होंने अपनी गाने की एक अलग ही शैली बना ली थी जिसके कारण वे कई बार विवादों में भी पड़े किंतु उनका ऐसा मानना था की वो एक रूढ़िवादी हैं और कुछ नया करना चाहते थे और इसी कारण उन्होंने कभी भी किसी घराने को नहीं अपनाया।इन्होंने अपनी संगीत की शिक्षा पं बी॰आर डेओढ़र से ली थी।पंडित जी एक अदभुत गायक तो थे की किंतु
ध्रुपद केंद्र की दीवार से
 उसके साथ-साथ वे एक म्यूज़िकॉलॉजिस्ट भी थे।पंडित जी ने ख़याल के साथ- साथ निर्गुण भजन,लोक गीत आदि भी अपने शैली में गा कर लोगों को अभिभूत किया है।इन्हें १९८८ में पद्मा भूषण और १९९० में पद्मा विभूषण से नवाज़ा गया है।इन्होंने राग गांधी-मल्हार की रचना भी की है जिसे इन्होंने पहली बार महात्मा गांधी के शताब्दी वर्ष पर आयोजित एक कार्यक्रम में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में लोगों के सामने गाया था।इतना कुछ पढ़ने के बाद पंडित जी की आवाज़ में "उड़ जाएगा हंस अकेला" सुना तो अदभुत रुहानियत का एहसास हुआ।पंडित जी की अनोखी गायकी और बुलंद आवाज़ के बारे में तो क्या कहूँ! लीजिए मैं पंडित जी पे काफ़ी कुछ बोल गया।फिर मैं घूमते घूमते  ध्रुपद के गुरुकुल "ध्रुपद केंद्र" आ पहुँचा।ये संस्थान गुंडेचा बंधु द्वारा स्थापित १९८१ में की गयी थी।तब ये आज तक यहाँ गुंडेचा बंधु ने कई लोगों को गुरु-शिष्य परम्परा से ध्रुपद की तालीम दी है।भारत के साथ-साथ युरप के भी कई लोग यहाँ ध्रुपद की तालीम लेने आते हैं।

  और मेरी भोपाल यात्रा का अंत गुंडेचा बंधु के माता-पिता से भेंट के साथ हुआ।"सुनता है गुरु ज्ञानी" गुंडेचा बंधु की लिखी हुई ये किताब लेने के लिए मैं गुंडेचा बंधु के भोपाल स्थित आवास पर गया था जहाँ मेरी मुलाक़ात उनके माता-पिता से हुई।उनलोगों को देख कर आश्चर्य हुआ इतने बड़े दिग्गजों का घर और इतने सरल और सहज लोग!
  इस प्रकार मेरी भोपाल यात्रा का सुखद अंत हुआ।काफ़ी कुछ देखने-जानने को मिला मुझे भोपाल शहर को देखने पर।।



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