Saturday, 23 April 2016

"अगर मेरा अगला जन्म होता है तो मैं अगले जन्म में एक संगीतकार बनना चाहूंगा."-प्रोफेसर मणींद्रनाथ ठाकुर


Prof ManidraNath Thakur
"अगर मेरा अगला जन्म होता है तो मैं अगले जन्म में एक संगीतकार बनना चाहूंगा." ऐसा कुछ कहा जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मणींद्रनाथ ठाकुर ने जब संगीत की बात चली तो. मुझे ये सुन के आश्चर्य हुआ की कोई राजनीति शास्त्र का प्रोफेसर जो पठन -पाठन और शोध में लगा हो उसे भी संगीत में इतनी दिलचस्पी है. प्रोफेसर मणींद्रनाथ ठाकुर 23 अप्रेल को मेरे मम्मी के दादाजी स्वर्गीय डॉक्टर मदनेश्वर मिश्र के जयंती के अवसर पर पूर्णिया आये हुए थे.
Late Prof Madneshwar Mishra Jyanti
Samaroh


Late Prof Madneshwar Mishra Jyanti
Samaroh
 वो शनिवार सुबह मेरे नाना जी से मिलने मेरे घर आये थे .मैं संगीत में उनकी रूचि को देख कर दंग रह गया. उन्होंने ने बतायाकी उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा कबीर संगीत सीखे और ये जानकर अच्छा लगा की उसकी अभिरुचि "western classical" में है. शनिवार शाम में उन्होंने डॉक्टर मदनेश्वर मिश्र स्मृति व्याख्यान विद्या विहार इंस्टीटूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के ऑडिटोरियम में दिया जिसका विषय "पूर्णिया: एक आर्थिक-राजनैतिक विश्लेषण". उन्होंने इतने गम्भीर विषय को बहुत सहज और आसान भाषा में समझाया. मेरी दिलचस्पी खासकर पूर्णिया के सांस्कृतिक पहलू पर थी जिसपर उनका सुझाव जयपुर साहित्य फेस्टिवल की तर्ज़ पे पूर्णिया में भी एक फेस्टिवल का आयोजन किया जाये जो कि पूर्णिया को विश्व के नक़्शे पर ला सकता है. उन्होंने यहाँ तक कह डाला की पूर्णिया बिहार की सांस्कृतिक राजधानी है.कई बड़े साहित्यकार जैसे सती नाथ भादुड़ी, जनार्दन झा द्विज , अनुपलाल मंडल इसी पूर्णिया की उपज है. उन्होंने बताया की नेपाल में रह रहे एक राजनयिक ने उनसे अनुरोध किया था की पूर्णिया में एक कार्यक्रम हो जिसमे मैथली, उर्दू ,फ़ारसी ,नेपली,भुटानी आदि अनेक भाषाओँ का संगम हो.

 कुल मिला कर उन्होंने कल कई ऐसी बातें बताई जिससे लोग अनभिज्ञ थे. ऐसा लगा मानो उनके पास एक खाखा हो पूर्णिया को सामाजिक ,आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से विकसित करने का और यह एक सच्ची श्रद्धांजलि थी एक अर्थशास्त्री, शिक्षविद, पूर्णियावासी डॉक्टर मदनेश्वर मिश्र के प्रति. 

Tuesday, 19 April 2016

कोलकाता

मैं पिछले तीन दिनों से कोलकाता में था अपने गुरूजी उस्ताद वसीम अहमद खान के पास। कोलकाता से मुझे लगाव है, संगीत की ही तरह। मैं इस शहर में डूब जाता हूं। यहाँ के वातावरण में ऐसा लगता है मानो  इसमें सुर-ताल-राग का वास हो। 

 इस शहर की मिठास की तो बात तो और भी प्यारी है। चाहे वो यहाँ की भाषा हो ,संगीत हो या स्वादिष्ट मिठाइयाँ, सभी में मिठास भरपूर है. ये शहर अपनी सभ्यता और संस्कृति को संजो कर रखने में बाकी शहरों से बहुत आगे है. 

कोलकाता गुरुदेव रविन्द्रनाथ  टैगोर के शब्दों में रचा बसा है। रवींद्र  संगीत और रवींद्र  नृत्य आज भी यहाँ के लागों  में बहुत प्रिय है. आपको हर गली-मोहल्ले में लोग संगीत ,नृत्य की शिक्षा लेते मिल जायेंगे.यह शहर ऐसा है की मानो  पुरे शहर में सरस्वती  का वास हो.

  इस शहर ने कई बड़े दिग्गज कलाकार दिए हमारे देश को जिनमे से कुछ हैं -
पंडित रविशंकर. जिनको सितार की झंकार तो पुरे विश्व में आज भी गूँजती है। पंडित जी को भारत रत्न से भी नवाज़ा गया है.

पंडित निखिल बनर्जी की सितार की झंकार की तो बात ही नहीं ! इन्होंने एक अलग ही पहचान बनायीं है. बाबा अल्लाउद्दीन खान के शागिर्द होने का सौभाग्य प्राप्त है इन्हें। 

अगर मैं  आज के कलाकारों  के  नाम लूँ तो  कितनो का नाम लिखूँ. उस्ताद राशिद खान , विदुसी गिरजा देवी जी ,पंडित अजय चक्रबर्ती आदि . हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का भाविष्य भी कोलकाता के इन कलाकारों के हाथों में सुरक्षित है आगरा घराने के  उस्ताद वसीम अहमद खान ,पंडित उल्हास खसलकर के शिष्य पंडित ओमकार ददरकर ,उस्ताद मशकूर अली खान के शागिर्द उस्ताद अरशद अली खान के हाथों में सुरक्षित है.

 कोलकाता मात्र संगीत के लिए ही नहीं बल्कि कला की दूसरी विधाओं में भी अपनी ऊंची पहचान रखता है.फिल्म कला के क्षेत्र  में सत्यजीत राय और चित्र कला में परितोष सेन जैसे लोगों ने सारी दुनिया में भारत की अलग पहचान बनाई है. 

मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूँ कि कहीं न कही इस शहर से जुड़ गया हूँ. मै संगीत की अपनी शिक्षा इसी शहर में रह रहे उस्ताद वसीम अहमद खान से ले रहा हूँ इसलिए ये शहर मेरे लिए हमेशा बहुत खास रहेगा.

Sunday, 10 April 2016

Living my dreams...Meeting with Pt Jasraj.

Sometimes I wonder how and when my fascination and passion germinated which finally made me a Hindustani classical musicaholic. In fact my parents told me that it started at my early age say around 4 years. I was at Delhi for my checkups. We were staying at Santosh Nana’s (my mother’s uncle) place in Delhi. As I heard from my parents...One day we were travelling in a car and some music was being played on the car. I was completely mesmerised by that voice though I didn't even know who was singing. Later I came to know that it was none other than Padma Vibhusan Pt. Jasraj who was singing a famous bhajan "Om Namo Bhagwate Wasudewaye". His sweet and soulful singing had deeply touched me. I was a little boy that time I didn't understand anything but there was something in his voice which had attracted me. Later we returned back from Delhi to our place. Seeing my interest in music my parents decided to make me learn Hindustani Classical Vocal. And this is how I finally started my journey of my passion, "HINDUSTANI CLASSICAL VOCAL".
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With Guru Jee baba at Sankatmochan Mandir Varanasi

                                         Pt Jasraj's singing had deeply touched me. I regularly used to listen his cassettes and CDs. I find myself fortunate enough to not only enjoy his divine singing live but also have some personal interactions with him. It was 2004, I was around 6 years old. He was at Banaras (Varanasi) for the Hanuman Jayanti Music Festival at the SankatMochan Mandir. My baba ( father's maternal uncle) Prof Balanand Sinha who is a near and dear disciple of Pandit Jasraj took me for a meeting with his guru jee. I still remember every moment. I was amazed to see how simple and loving Pandit Jee was.He fed me with biscuits with his hands.He made me sit beside him and kept asking something or the other from me though I was shy enough not to reply much.Just before Pandit Jee baba (Prof Balanand Sinha) got the opportunity to perform on the stage and through his singing he prepared a perfect atmosphere for his guru jee to come.  Guru jee baba's (Pt Jasraj) concert was at around 2 at night. I was eagerly waiting for seeing him singing live. It was finally 2 at night and he started singing. I was sitting in the front row and was watching him singing on the big stage in front me.The time was around 2 as I mentioned previously, the time when people prefer sleeping over anything else but I preferred listening him. As my parents say that I kept listing to him till morning without even blinking my eyes. Even Guru Jee Baba was amazed seeing his little fan listening to him for the whole night. 
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With Pandma Vibhusan Pt Jasraj and Padma Shree Gajendra Narayan Singh
at Maurya Hotel Patna
                   
                                         The second time I met was at the Maurya Hotel Patna in the year 2010. This time also my sincere courtesy to my Father's Maternal uncle Prof Balanand Sinha. Guru Jee baba was at Patna for his concert organized by the ART OF LIVING people. I met him at the hotel in the morning since his concert was at the evening. This time I was fortunate enough to sing something in front of him. I sang a bandish in Raag Jaunpuri. After I finished he patted my back and said I had sung pretty well.  I attended his concert in evening and then returned to my place at Purnea.

                              Pt Jasraj’s divine singing and his melodious voice connects the audience to the Almighty whether it is his “Mero Allah Meheraban” or its “Adi Dev Namostovyam” or his chanting of “OM”.
         

                                 Both opportunities were like living the dreams. When he sings people are completely mesmerised and find themselves connected to the almighty. Someone has correctly said -." His charming persona, the Swaramandala in his lap, his exceptionally large ensemble often consisting of three or four tanpura-s and two melodic accompaniments, his body language full of dramatic gestures – all contribute to building a majestic aura that enhances the appeal of his music."

Friday, 8 April 2016

बाबा (राजकुमार श्यामानन्द सिंह) की याद में ...

आज सुबह जब रियाज़ कर रहा था, उसी वक़्त  मुझे अपने बचपन की याद आ गई जब मैं अपने दादा जी से मिलने देवघर  (झारखण्ड ) गया था और वहां दादी माँ के कैसेटों के संकलन से सुबह -सुबह जौनपुरी की बंदिश ऐ रि फिरत एक दमदार आवाज़ में सुना. 

उस वक़्त तक मैं राग से अनजान था, सुर का भी ज्ञान नहीं था लेकिन गीत सुनकर मैं डूब गया। गजब का आकर्षण था उस आवाज़ मे . बाद में दादी माँ ने बतलाया वो कोई और नहीं उनके पिता जी स्वर्गीय राजकुमार श्यामनन्द सिंह की आवाज़ है। मैं बहुत ख़ुश हुआ था। 

बाद के  वर्षों में जब मेरी थोड़ी और रूचि बढ़ी तो मैंने राजकुमार श्यामानन्द सिंह की आवाज़ में "दुःख हरो द्वारिकानाथ " को सुना और ऐसा लगा कि वो सच मे कितने दिल से द्वारिकानाथ को याद किया करते थे . जितनी बार इस भजन को सुनता उतना और सुनने का मन करता. यहीं से शास्त्रीय गायन से मेरा लगाव बढ़ा। 

बाद में राजकुमार श्यामानन्द के बारे में ख़ूब सारी जानकारी इकट्ठा करने लगा। उनका जन्म 27 जुलाई 1916 को हुआ था.उन्होंने अपनी शुरुआती संगीत शिक्षा उस्ताद भीष्मदेव चटर्जी से ली थी.बाद के दिनों मे उस्ताद बच्चू खान साहब  और पंडित भोलानाथ भट्ट से भी उन्होंने संगीत की शिक्षा ली थी.

जैसा की मेरे घर में पापा बताते हैं की उनकी दुःख हरो द्वारिकानाथ भजन को सुनकर केसरबाई जैसी गायिका  ने उन्हें अपना गुरु बनाने की इच्छा जताई की थी.जब भी कोई इनके गाने को सुनता तो वो बस सुनता ही रह जाता था। सबसे खास बात इनके गाने की वो थी बंदिश की अदायगी .

वैसे मेरी दादी माँ यह भी बताती है की बाबा (राजकुमार श्यामनन्द सिंह) शिकार के भी बहुत शौक़ीन थे.वे स्पोर्ट्स मे भी उतनी ही रूचि रखते थे. मैं सोचता हूं कि बाबा एक जीवन में कितना कुछ कर गए। उनके बारे में सोचकर ही रोमांचित हो जाता हूं। 

आज 9 अप्रैल 1994  के दिन ही उन्होंने गाते गाते ही अपने प्राण त्याग दिए थे. ये मेरा सौभाग्य  है कि वो मेरे पापा के नाना जी थे. लेकिन मुझे इस बात का दुःख है की मै उनसे कभी मिल न सका ना उन्हें गाते सुन पाया . तो भी यह सोचकर गर्व होता है कि मैं उनके परिवार का हिस्सा हूं। वो सच मे एक गायक नहीं साधक थे.

Wednesday, 6 April 2016

यह ब्लॉग आप क्यों पढ़ें ...

मैं अंकुर विप्लव, जिसे  संगीत से बेहद लगाव है। ब्लॉग की दुनिया में मेरा यह पहला क़दम है। यह मेरी पहली पोस्ट है। मैं बिहार के पूर्णिया शहर में रहता हूं।  कभी यह शहर शास्त्रीय संगीत का गढ़ हुआ करता था। वैसे आज भी यहाँ लोगबाग़ शास्त्रीय संगीत को बड़े चाव से सुनते हैं। 

मैं 12वीं का छात्र हूं। पढ़ाई के संग शास्त्रीय संगीत की  भी तालीम ले रहा हूँ। शुरुआत में पूर्णिया में राजकुमार श्यामानन्द सिंह के शिष्य श्री अमरनाथ झा से हमने शास्त्रीय संगीत के बारे में जाना। उन्होंने ही मुझे  शास्रीय संगीत  की बारीकी  से अवगत  करवाया| यह काम चार साल की उम्र से आरम्भ हुआ जो जारी है और ताउम्र जारी रहेगा क्योंकि संगीत की पढ़ाई पूरी कभी नहीं होती है। 

आगे चलकर 2011 से शास्त्रीय संगीत की पुरातन परंपरा -गुरू- शिष्य परंपरा के अंतर्गत आगरा घराना के
 उस्ताद वसीम अहमद खान से संगीत सीख रहा हूं .

अब, ब्लॉग के शीर्षक की बात। मैंने अपने ब्लॉग का टाइटल 'तानपुरा' चुना है क्योंकि 'तानपुरा' की सहायता के बिना आप रियाज़ ही नहीं कर सकते।  इस वाद्ययंत्र से मुझे बेहद प्यार है इसलिए मैंने अपने ब्लॉग का शीर्षक 'तानपुरा' रखा। 

यह मेरी पहली पोस्ट है। यह ब्लॉग अब जारी रहेगा, शास्त्रीय संगीत के राग की तरह.....

Music Has No Boundaries...

One thing which can’t be stopped from travelling to a different country without a visa or passport is- Art and Music. I will talk about ...