मैंने बहुत सारी बातें की आज के कलाकारों पर,बहुत सारे पोस्ट लिखे उन लोगों पर और आगे भी उन पर चर्चा करता रहूँगा,लिखता रहूँगा।किंतु,आज मैं आपलोगों को ले चलता हुँ आज से १०० वर्ष पूर्व।तारीख़ २७ जुलाई का साल १९१६ और स्थान चम्पानगर में जन्म लिया एक महान बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने।एक ऐसा मानव जो गायक था ,साधक था,खिलाड़ी था,शिकारी था,जिसमें करुणा और संवेदना भी भरपूर थी।गाना उनके लिए पेशा न था, वव्यवसाय न था,संगीत तो उनके लिए बस एक जप था,तप था।जी हाँ मैं बात के रहा हुँ स्वर्गीय राजकुमार श्यमानंद सिंह की।आज उनकी शताब्दी जन्म तिथि मनायी जा रही है।उनके बारे में जितना सुनता हूँ उतना और ज़्यादा जान ने की इच्छा होती है।उन्होंने अपनी संगीत की तालीम उस्ताद भीष्मदेव चैटर्जी,पं भोला नाथ भट्ट,उस्ताद बच्चू खान जैसे तत्कालीन दिग्गजों से ली थी।उनके गाने की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह है उनकी बंदिश की अदायगी।जब भी मैं उनके द्वारा गाये भजन जैसे-"हम तुम्हें देख नंदलाल जिया करते हैं"या "दुःख हरो द्वारकानाथ" सुनता हूँ तो लगता है की कितने दिल से याद किया करते थे अपने श्याम को।ये भजनें महमहिमों के राज भवनों में गूंजा करती थीं तो चम्पानगर के किसी निर्धन की झोपडी भी इसकी साक्षी रह चुकी है।डा॰ज़ाकिर हूसेन,भारत के पूर्व राष्ट्रपति भी बाबा के गाने के क़ायल थे।महज ३२ वर्ष की आयु में उन्होंने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन जो प्रयाग संगीत समिति द्वारा आयोजित था उसमें उन्होंने अध्यक्षता की।वहाँ पर उनके द्वारा दिया भाषण शास्त्रीय संगीत पर अदभुत बिवेचना है और इस विधा के विभिन्न आयामों पर उनकी सोच को रेखांकित करता है।उनकी संगीत की व्याख्या की समझ भी अदभुत थी।उस वक़्त के शायद ही कोई संगीतकार होगा जो इनके चम्पानगर स्थित आवास पर न आया होगा।वे जन्म से तो राजा थे ही किंतु अपने कर्मों से वो साधक थे।जिनके लिए श्याम ही आदि थे और श्याम ही अंत थे। वो मेरे बाबा थे,मेरे पिता के नाना थे इससे भी बड़ी बात वो एक संगीतकार थे,संगीत के पुजारी थे।गाने की जब मैंने शुरुआत की थी तब मेरे मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ ये थे। आज भी जब मैं गाता हूँ तो उनकी यह पंक्ति मेरे ज़ेहन में रहती है-"रूह से गाओ गले से नहीं"। उनको जितना सुना और उनके बारे में जितना सुना निसंदेह वे एक मानव नहीं बल्कि एक महा मानव थे।आज उनकी शताब्दी मनायी जा रही है और उनको मेरा सत्-सत् नमन।।
Tuesday, 26 July 2016
'संगीत के पुजारी 'बाबा श्यामानन्द सिंह
मैंने बहुत सारी बातें की आज के कलाकारों पर,बहुत सारे पोस्ट लिखे उन लोगों पर और आगे भी उन पर चर्चा करता रहूँगा,लिखता रहूँगा।किंतु,आज मैं आपलोगों को ले चलता हुँ आज से १०० वर्ष पूर्व।तारीख़ २७ जुलाई का साल १९१६ और स्थान चम्पानगर में जन्म लिया एक महान बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने।एक ऐसा मानव जो गायक था ,साधक था,खिलाड़ी था,शिकारी था,जिसमें करुणा और संवेदना भी भरपूर थी।गाना उनके लिए पेशा न था, वव्यवसाय न था,संगीत तो उनके लिए बस एक जप था,तप था।जी हाँ मैं बात के रहा हुँ स्वर्गीय राजकुमार श्यमानंद सिंह की।आज उनकी शताब्दी जन्म तिथि मनायी जा रही है।उनके बारे में जितना सुनता हूँ उतना और ज़्यादा जान ने की इच्छा होती है।उन्होंने अपनी संगीत की तालीम उस्ताद भीष्मदेव चैटर्जी,पं भोला नाथ भट्ट,उस्ताद बच्चू खान जैसे तत्कालीन दिग्गजों से ली थी।उनके गाने की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह है उनकी बंदिश की अदायगी।जब भी मैं उनके द्वारा गाये भजन जैसे-"हम तुम्हें देख नंदलाल जिया करते हैं"या "दुःख हरो द्वारकानाथ" सुनता हूँ तो लगता है की कितने दिल से याद किया करते थे अपने श्याम को।ये भजनें महमहिमों के राज भवनों में गूंजा करती थीं तो चम्पानगर के किसी निर्धन की झोपडी भी इसकी साक्षी रह चुकी है।डा॰ज़ाकिर हूसेन,भारत के पूर्व राष्ट्रपति भी बाबा के गाने के क़ायल थे।महज ३२ वर्ष की आयु में उन्होंने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन जो प्रयाग संगीत समिति द्वारा आयोजित था उसमें उन्होंने अध्यक्षता की।वहाँ पर उनके द्वारा दिया भाषण शास्त्रीय संगीत पर अदभुत बिवेचना है और इस विधा के विभिन्न आयामों पर उनकी सोच को रेखांकित करता है।उनकी संगीत की व्याख्या की समझ भी अदभुत थी।उस वक़्त के शायद ही कोई संगीतकार होगा जो इनके चम्पानगर स्थित आवास पर न आया होगा।वे जन्म से तो राजा थे ही किंतु अपने कर्मों से वो साधक थे।जिनके लिए श्याम ही आदि थे और श्याम ही अंत थे। वो मेरे बाबा थे,मेरे पिता के नाना थे इससे भी बड़ी बात वो एक संगीतकार थे,संगीत के पुजारी थे।गाने की जब मैंने शुरुआत की थी तब मेरे मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ ये थे। आज भी जब मैं गाता हूँ तो उनकी यह पंक्ति मेरे ज़ेहन में रहती है-"रूह से गाओ गले से नहीं"। उनको जितना सुना और उनके बारे में जितना सुना निसंदेह वे एक मानव नहीं बल्कि एक महा मानव थे।आज उनकी शताब्दी मनायी जा रही है और उनको मेरा सत्-सत् नमन।।
Tuesday, 19 July 2016
गुरु पूर्णिमा...
आज आषाढ़ मास की पूर्णिमा है और आज का दिन गुरुओं को समर्पित है।आज के दिन उनकी पूजा होती है। हाँ!आज दिन है गुरु पूर्णिमा का।सबसे पहले मैं उन सब को नमन करता हुँ जिनसे मैंने थोड़ा-बहुत भी कभी कुछ सीखा हो।
गुरु पूर्णिमा का दिन तो मेरे लिए या कहिये उन सभों के लिए और भी ख़ास हो जाता जो गुरु-शिष्य परम्परा से संगीत,नृत्य या और भी किसी चीज़ की शिक्षा ले रहे हैं।
गु शब्द का अर्थ-अंधकार और रु शब्द का अर्थ-प्रकाश होता है।हाँ! गुरु वो होता है जो शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है,असत्य से सत्य की ओर ले जाता है।अब मैं अपनी बात करता हूँ।बात उस वक़्त की है जब मैं ४ वर्ष
का था।उस वक़्त मुझे न बैठना आता था न ठीक से बोलना,उस समय मेरे गुरु जी श्री अमरनाथ झा ने मुझ में संगीत की समझ,राग-रागिनीयों की पहचान करवाई।और लय-ताल से भी मुझे अवगत करवाया।श्री अमरनाथ झा राजकुमार शायमानंद सिंह के शिष्य हैं।उनके गाने में सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह उनकी बंदिश की आदयगी है जो सम्भवत: उन्होंने अपने गुरु से सीखी।आज जितनी भी संगीत मुझ में है निसंदेह उसकी नींव इन्होंने ही रखी और इसके लिए मैं सदा इनका आभारी रहूँगा।
अब मैं बात करता हूँ उनकी जिनसे मैं अभी संगीत की शिक्षा ले रहा हूँ।हाँ! मैं बात कर रहा हुँ उस्ताद वसीम अहमद ख़ान की।अभी पिछले ही पोस्ट में मैंने उनके बारे में काफ़ी कुछ कहा।वो गुरु तो अच्छे हैं ही लेकिन साथ-साथ मुझे जो उनकी सबसे अच्छी बात लगती है वह है उनकी "व्यक्तित्व"।मुझे आज भी याद है जब मैंने उनसे तालीम लेनी शुरू ही की थी तब मैं ज़ोरदार बीमार पड़ा था,जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा था,तब उन्होंने मेरी कुशलता के लिए ख़ास नमाज़ अदा की।आज भी जब मैं उनसे तालीम लेने कोलकाता जाता हूँ तो संगीत सिखाने के साथ-साथ वो इस पर भी ध्यान देते की मेरे व्यक्तित्व का भी समग्र विकास हो।मेरे गुरु जी अच्छे कलाकार के साथ-साथ अच्छे गुरु भी हैं।उनका तालीम देने का तरीक़ा भी मुझे बहुत अच्छा लगता।
मैंने काफ़ी कुछ कह दिया अपने गुरुओं पर।बातें तो इतनी हैं की कभी ख़त्म ना हो इसलिए और बातें फिर कभी।एक बार फिर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मैं उन सब को प्रणाम करता हूँ जिनसे मैंने कुछ भी कभी भी सीखा हो।और अंत करूँगा मैं कबीर के इस दोहे से-
" सब धरती काग़ज़ करूँ,
लेखन बन रे
साथ समुद्र की मास करूँ,
गुरु गुण लिखा ना जाए।।"
गुरु पूर्णिमा का दिन तो मेरे लिए या कहिये उन सभों के लिए और भी ख़ास हो जाता जो गुरु-शिष्य परम्परा से संगीत,नृत्य या और भी किसी चीज़ की शिक्षा ले रहे हैं।
उस्ताद वसीम अहमद खान |
श्री अमरनाथ झा |
अब मैं बात करता हूँ उनकी जिनसे मैं अभी संगीत की शिक्षा ले रहा हूँ।हाँ! मैं बात कर रहा हुँ उस्ताद वसीम अहमद ख़ान की।अभी पिछले ही पोस्ट में मैंने उनके बारे में काफ़ी कुछ कहा।वो गुरु तो अच्छे हैं ही लेकिन साथ-साथ मुझे जो उनकी सबसे अच्छी बात लगती है वह है उनकी "व्यक्तित्व"।मुझे आज भी याद है जब मैंने उनसे तालीम लेनी शुरू ही की थी तब मैं ज़ोरदार बीमार पड़ा था,जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा था,तब उन्होंने मेरी कुशलता के लिए ख़ास नमाज़ अदा की।आज भी जब मैं उनसे तालीम लेने कोलकाता जाता हूँ तो संगीत सिखाने के साथ-साथ वो इस पर भी ध्यान देते की मेरे व्यक्तित्व का भी समग्र विकास हो।मेरे गुरु जी अच्छे कलाकार के साथ-साथ अच्छे गुरु भी हैं।उनका तालीम देने का तरीक़ा भी मुझे बहुत अच्छा लगता।
मैंने काफ़ी कुछ कह दिया अपने गुरुओं पर।बातें तो इतनी हैं की कभी ख़त्म ना हो इसलिए और बातें फिर कभी।एक बार फिर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मैं उन सब को प्रणाम करता हूँ जिनसे मैंने कुछ भी कभी भी सीखा हो।और अंत करूँगा मैं कबीर के इस दोहे से-
" सब धरती काग़ज़ करूँ,
लेखन बन रे
साथ समुद्र की मास करूँ,
गुरु गुण लिखा ना जाए।।"
Saturday, 16 July 2016
'जसराज' की 'जसरंगी'
मैंने बहुत सारी जुगलबंदीयाँ सुनी।चाहे वो उस्ताद राशिद खान और पंडित भीमसेन जोशी की हो या पंडित हरिप्रसाद चौरासिया और पंडित बालमुरलीकृष्ण की हो सब अपने आप में अदभुत थे।किंतु, आज मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसे जुगलबंदी की जिसमें एक गायक और गायिका अलग अलग स्केल,अलग अलग राग गाते हुए जुगलबंदी करते।कई बार तो वे बिलकुल अलग शैली गाने वाले और अलग घराने के भी होते।जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ "जसरंगी" की।जसरंगी पं जसराज की एक अवधारणा है।जसरंगी पहेली बार पुणे में गाया गया था।जसरंगी को ले कर पंडित जी की यह सोच है की "हवा-पानी, धरती-गगन, राधा-कृष्ण, शिव-शक्ति सब दो अलग-अलग इकाई हैं। जब दोनों मिलते हैं तो पूर्णता आती है। ऐसे ही महिला-पुरुष स्वर एक साथ जुगलबंदी करें तो शायद पूर्णता आए।"इस सोच में पंडित जी सफल भी रहे क्योंकि आज जब कभी मैं या कोई भी संगीत-प्रेमी इस अदभुत जुगलबंदी को सुनता है तो एक अदभुत अनुभूति होती है।
एक ने राग नट भैरव का चित्रण किया तो दूसरे ने राग माधवंती का।दोनों को एक साथ सुनकर एक अदभुत
आनंद मिल रहा था।एक मेवाती घराने से आते तो दूसरी जयपुर घराने से।ये दोनों एक साथ इतनी ख़ूबसूरती से गा रहे थे की ये एहसास भी नहीं हो रहा था कि दोनों अलग-अलग राग गा रहे थे।इतना ही नहीं दोनों अलग-अलग स्केल पर भी गा रहे थे और तो और दोनों को अलग-अलग संगतकार भी संगत कर रहे थे।जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ विधुषी अश्विनी भिड़े और पंडित संजीव अभ्यंकर की।गायन शुरू करने से पहले जानकारी देते हुए यह बताया की यह जुगलबंदी मूरछाना पद्धति पर आधारित है।
बाद मैं मैंने पं रतन मोहन शर्मा और गरगी सिद्धांत जी की जसरंगी जुगलबंदी सुनी।इन दोनों ने भी राग जोग और वृंदावनी सारंग का अनूठा मिलन किया है।
वैसे तो अभी ये नया प्रयोग है।देख़ये आगे यह कितना लोकप्रिय होता है संगीत रसिकों के बीच।
और भी चर्चा करूँगा संगीत पर लेकिन आज नहीं फिर कभी।।
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एक ने राग नट भैरव का चित्रण किया तो दूसरे ने राग माधवंती का।दोनों को एक साथ सुनकर एक अदभुत
आनंद मिल रहा था।एक मेवाती घराने से आते तो दूसरी जयपुर घराने से।ये दोनों एक साथ इतनी ख़ूबसूरती से गा रहे थे की ये एहसास भी नहीं हो रहा था कि दोनों अलग-अलग राग गा रहे थे।इतना ही नहीं दोनों अलग-अलग स्केल पर भी गा रहे थे और तो और दोनों को अलग-अलग संगतकार भी संगत कर रहे थे।जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ विधुषी अश्विनी भिड़े और पंडित संजीव अभ्यंकर की।गायन शुरू करने से पहले जानकारी देते हुए यह बताया की यह जुगलबंदी मूरछाना पद्धति पर आधारित है।
बाद मैं मैंने पं रतन मोहन शर्मा और गरगी सिद्धांत जी की जसरंगी जुगलबंदी सुनी।इन दोनों ने भी राग जोग और वृंदावनी सारंग का अनूठा मिलन किया है।
वैसे तो अभी ये नया प्रयोग है।देख़ये आगे यह कितना लोकप्रिय होता है संगीत रसिकों के बीच।
और भी चर्चा करूँगा संगीत पर लेकिन आज नहीं फिर कभी।।
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Monday, 11 July 2016
Perfection thy name is my Guru Jee-Ustad Waseem Ahmed Khan
Ustad Waseem AhmedKhan-my GuruJee, my mentor, my friend, my guide. I believe that I am the
luckiest and most fortunate person because he accepted to teach little old me
music from sa,re,ga,ma. My life has been greatly enriched by my association
with him.
It was sometime in July few years back when my GuruJee was in Purnea,
Bihar for his concert on the occasion of Late Rajkumar Shyamanand Singh's birth
anniversary,that was the first time I heard him live. I was completely mesmerized
by his singing though I didn't have much knowledge of sur, taal or ragas at
that time. To add to the beauty of gayaki was the wonderful tabla accompaniment
by the young maestro, Shri Sanjay Adhikari. My sincere thanks to my baba (Prof
Balanand Sinha)
who insisted him to accept me as his disciple. I am privileged that he accepted me as his disciple. I often encountered with the word "PERFECTION" in my life. I didn't quite understand what it means to be perfect. It was only after I met my guru jee that I began understanding what it means or say what it means to be perfect. Here I would like to share one of my experiences with my GuruJee. He was giving me a talim of Raag Bhairav. He asked me sing a phrase of Raag bhairav during the course of aalap. The phrase was komal re, ga, ma. I was unable to sing the phrase as he wanted me to. To my surprise he made me sing the phrase for an hour or more until it was perfect up to some extent.
My GuruJee comes from the great lineage of Agra Gharana.
He took his initial talim from his father Ustad Naseem Ahmed Khan and later by
Ustad Shafi Ahmed Khan at ITC SRA. He has the previlage of being the maternal
grandson of Ustad Ata Hussian Khan who is one of the all time great doyen of
this gharana. The agra gharana is characterized by the forceful and loud
projection of voice. Nom-tom aalap like dhrupad is a unique legacy of this
gharana. Laay kari plays a major part in the agra style singing.
All the characteristics of this gharana can be seen in the singing of my
GuruJee. And why shouldn't it be? He has got the Agra Gharana singing in his
genes, inherited from his father and fore fathers. In the modern era of fusion
and mixing, the word "puritan" can be used for my Guru Jee. He has
performed in all major music festivals in India like-Saptak, Sawai Gandhrva
Music Festival,Spic Macay International Convention etc, also he toured Germany, France Canada and Bangladesh for various music
festivals. Wherever he has performed, he took the audience by storm and has
kept them in awe stricken trance with his magical voice, vast knowledge and the
masterly handling of various known and rare raagas. Currently he is a faculty
at ITC SRA Kolkata. Yes, indeed
I am fortunate that I got a guru like Ustad Waseem Ahmed Khan.
Saturday, 9 July 2016
कव्वाल साबरी से कैसी दुश्मनी?
२३ जून की सुबह अख़बार की इस ख़बर ने मुझे परेशान सा कर दिया।मैं विस्मित था,आहत था कि किसी कलाकार से, किसी संगीतज्ञ से किसी की कैसी बैर?
संगीत कला तो ईश्वर की इबादत है।वास्तव में संगीत ईश्वर के क़रीब जाने का एक माध्यम है। संगीत कला का कोई सरहद नहीं होती है। इसे जाति, धर्म, देश, क्षेत्र में नहीं बांधा जा सकता।संगीत तो नदी की धारा की तरह अविरल है।यह तो आत्मा से परमात्मा तक पहुँचने का एक ज़रिया है।संगीत एक एक जुनून है,एक सुकून है और क़व्वाली तो सूफ़ी संतों की गायन की एक शैली है।
शुरूआत में तो क़व्वाली सिर्फ़ दरगाहों पर गाया जाता था पर आज यह साबरी बंधु जैसे गायकों के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध है।
फिर क्यों किसी ने अमजद साबरी जैसे अल्लाह के बंदे की आवाज़ से दुनिया भर के लोगों को महरूम कर दिया? भर दो झोली मेरी या मुहम्मद..., ताजदार-ए-हरम...और मेरा कोई नहीं है तेरे सिवा...जैसी जुबां पर चढ़ी कव्वालियां इन्हीं साबरी
बंधुओं की देन है।अब ये आवाज़ फिर नहीं सुनाई देगी क्योंकि किसी ने अमजद साबरी की गोली मार कर हत्या कर दी है।अमजद साबरी मशहूर कव्वाल गुलाम फरीद साबरी के बेटे थे।सूफ़ियाना क़व्वाली के लिए जाने जाते थे साबरी।इन्होंने अपने पिता से ही गाने की तालीम ली थी।अमजद "साबरी ब्रदसॅ" के नाम से मशहूर पाकिस्तानी क़व्वाल घराने से ताल्लुक़ रखते थे।संगीत तो इन्हें विरासत में मिला और इन्होंने बड़े बख़ूबी इसे आगे पहुँचाया।संगीत की ख़िदमत इनका एक मात्र मिशन था।अमजद साबरी मशहूर कव्वाली गायक मकबूल साबरी के भांजे थे, जिनकी 2011 में मौत हो गई थी।मुझे तो ऐसा लगता इनका पूरा परिवार ही संगीत को समर्पित था।इन्होंने ने भारत और पाकिस्तान के अलावा यूरोप और अमेरिका में भी कई कार्यक्रम किए थे। उन्हें गायिकी की आधुनिक शैली के लिए कव्वाली का ‘‘रॉकस्टार’’ भी कहा जाता था।
साबरी अब भले ही हमारे बीच न रहे किंतु वो अपने क़व्वालियों के ज़रिए सदा हमारे दिल में रहेंगे।आज जब उनके द्वारा गाये गए क़व्वालियों को सुन रहा तो लगा की सच-मुच वे कितने दिल को अल्लाह को याद किया करते थे।।
Friday, 1 July 2016
मन में बस गया... "भारत भवन"
मैं झील के किनारे बैठा हुआ हूँ।ठंडी-ठंडी हवा चल रही है और चारों ओर हरे-भरे पेड़।वातावरण में एक अजीब सी शांति और शकुन का एहसास हो रहा है।धीमी आवाज़ में सितार पर राग यमन की अलाप कानों में आ रही है।
एक ऐसी जगह जहाँ कला के हर प्रकार का वास है।ऐसी जगह जहाँ साहित्य भी है, जहाँ संगीत भी है।जहाँ नृत्य भी है, पेंटिंग भी है।जहाँ थियेटर भी है सिनेमा भी है।कहीं पंडित जसराज की मधुर आवाज़ भी गूँजती तो कहीं कथक की थिरकन तो कहीं भरतनाट्यम् की भाव का अहसास होता है।पांडवानी के रूप तीजन बाई की भी
उपस्थिति का अहसास है यहाँ पर।जहाँ कलाकारों की कला-कृतियाँ मन को अभिभूत कर रहीं है तो जहाँ जन-जन के कवि बाबा नागार्जुन की पंक्तियाँ भी सुनाई दे रही है।जी हाँ बात कर रहा हूँ मैं भोपाल में स्थित भारत भवन की।ये जगह मेरे लिए किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं है।जैसे जैसे मैं इस प्रांगन में घूम रहा हूँ वैसे-वैसे मुझे कई कलाकारों,कवियों,लेखकों,रंगकर् मियों की सुखद अहसास और अनुभूति हो रही है।
सबसे पहले मैं "रूपानकर" पहुँचा।ये भारत भवन का एक अंग है जो की माडर्न,लोक और जन-जातीय कला-कृत्यों का एक संग्रहालय है।इस संग्रहालय में कई राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय प्रदर्शनी हो चुकें हैं अभी तक।जे स्वामिनाथम,के जी सुब्रमणीयम,हेन्री मोरे जैसे कई कलाकारों के प्रदर्शनी यहाँ आयोजित किए जा चुके हैं।
इसके बाद मैंने भारत भवन का रंगमंच पहुँचा-"रंगमण्डल"।यह रंगमंच नाटक जैसे कला,जो की लोगों के बीच से विलुप्त हो चुका है,को संजों कर रखने में एक बहुत बड़ा योगदान दे रहा है।१००० कार्यक्रम और ५० से भी ज़्यादा नाटकों के मंचन का साक्षी रह चुका है यह रंगमंच।पीटर ब्रुक,निरंजन गोस्वामी,तापस सेन जैसे कई दिग्गज यहाँ अपनी प्रस्तुति दे कर लोगों को अभिभूत कर चुके हैं।यहाँ समकालीन लेखकों के नाटकों की भी
प्रस्तुति होती है तो सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ नाटकों का भी मंचन होता ही है।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी,बाबा नागार्जुन,शमशेर सिंह बहादुर जैसे कवियों के कविताओं में डूब गया है मन।जी हाँ मैं भारत भवन के भारतीय कवियों को समर्पित एक अंग "वगरथ" पहुँच चुका हूँ।१३००० से भी ज़्यादा कविताओं के पुस्तक से लैस, शायद ये अपने तरह का अकेला संग्रहालय होगा जहाँ इतने सारे कवियों की कविता किसी को एक जगह मिल सकती है।यहाँ पर कई बड़े कवियों और लेखकों के हस्त लिखित रचनायें भी रखी हुई हैं जो की अपने आप में अदभुत हैं।यहाँ पर कई बड़े कवि सम्मेलन का आयोजन होता ही रहता है।
अब मैं भारत भवन के उस अंग में आ पहुँचा हूँ जिसे देखने के लिए मैं सबसे ज़्यादा उत्सुक था।हाँ!! मैं पहुँच गया हूँ "अनहद"--यह भारतीय शास्त्रीय ,लोक और आदिवासी संगीत का केंद्र है।यहाँ कई प्रकार के संगीत सम्मेलन होते हैं जैसे-परम्परा,सप्तक आदि।अनहद अपने स्थापना से आज तक के गौरवमय यात्रा में कई दिग्गज कलाकारों की कला प्रस्तुति का साक्षी रह चुका है।चाहे वो पं जसराज हों या उस्ताद ज़ाकिर हूसेन या उस्ताद अल्लाह रखा हों या पं रविशंकर सभी के संगीत की गूँज सुनाई देती है यहाँ।अभी पिछले ही वर्ष यहाँ आगरा घराने पर एक संगीत गोष्ठी हुई था जिसमें मेरे गुरूजी उस्ताद वसीम अहमद खान को भी आमंत्रित किया गया था।
इसके बाद मैं "छवि" पहुँचा।यह भारत भवन का हाल में ही बना एक अंग है जो कि भारतीय सिनेमाओं के लिए एक केंद्र है।यहाँ पर कई राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं।
बहुत दिनों से इच्छा थी भारत भवन देखने की।वो आज पूरी हो गयी।मुझे इतना कुछ देखने के बाद ऐसा लगता
की शायद भारत में कोई दूसरा भारत भवन नहीं होगा।
सच-मुच भारत भवन अपने भारत नाम को साकार करता है।भारत के विविधताओं को संजो कर रखने और उसे लोगों के बीच पहुँचाने का काम भारत भवन पिछले कई दशकों बख़ूबी करता आ रहा है और यह आज भी जारी है।किसी कला प्रेमी के लिए यह किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं।।
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एक ऐसी जगह जहाँ कला के हर प्रकार का वास है।ऐसी जगह जहाँ साहित्य भी है, जहाँ संगीत भी है।जहाँ नृत्य भी है, पेंटिंग भी है।जहाँ थियेटर भी है सिनेमा भी है।कहीं पंडित जसराज की मधुर आवाज़ भी गूँजती तो कहीं कथक की थिरकन तो कहीं भरतनाट्यम् की भाव का अहसास होता है।पांडवानी के रूप तीजन बाई की भी
उपस्थिति का अहसास है यहाँ पर।जहाँ कलाकारों की कला-कृतियाँ मन को अभिभूत कर रहीं है तो जहाँ जन-जन के कवि बाबा नागार्जुन की पंक्तियाँ भी सुनाई दे रही है।जी हाँ बात कर रहा हूँ मैं भोपाल में स्थित भारत भवन की।ये जगह मेरे लिए किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं है।जैसे जैसे मैं इस प्रांगन में घूम रहा हूँ वैसे-वैसे मुझे कई कलाकारों,कवियों,लेखकों,रंगकर्
सबसे पहले मैं "रूपानकर" पहुँचा।ये भारत भवन का एक अंग है जो की माडर्न,लोक और जन-जातीय कला-कृत्यों का एक संग्रहालय है।इस संग्रहालय में कई राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय प्रदर्शनी हो चुकें हैं अभी तक।जे स्वामिनाथम,के जी सुब्रमणीयम,हेन्री मोरे जैसे कई कलाकारों के प्रदर्शनी यहाँ आयोजित किए जा चुके हैं।
इसके बाद मैंने भारत भवन का रंगमंच पहुँचा-"रंगमण्डल"।यह रंगमंच नाटक जैसे कला,जो की लोगों के बीच से विलुप्त हो चुका है,को संजों कर रखने में एक बहुत बड़ा योगदान दे रहा है।१००० कार्यक्रम और ५० से भी ज़्यादा नाटकों के मंचन का साक्षी रह चुका है यह रंगमंच।पीटर ब्रुक,निरंजन गोस्वामी,तापस सेन जैसे कई दिग्गज यहाँ अपनी प्रस्तुति दे कर लोगों को अभिभूत कर चुके हैं।यहाँ समकालीन लेखकों के नाटकों की भी
प्रस्तुति होती है तो सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ नाटकों का भी मंचन होता ही है।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी,बाबा नागार्जुन,शमशेर सिंह बहादुर जैसे कवियों के कविताओं में डूब गया है मन।जी हाँ मैं भारत भवन के भारतीय कवियों को समर्पित एक अंग "वगरथ" पहुँच चुका हूँ।१३००० से भी ज़्यादा कविताओं के पुस्तक से लैस, शायद ये अपने तरह का अकेला संग्रहालय होगा जहाँ इतने सारे कवियों की कविता किसी को एक जगह मिल सकती है।यहाँ पर कई बड़े कवियों और लेखकों के हस्त लिखित रचनायें भी रखी हुई हैं जो की अपने आप में अदभुत हैं।यहाँ पर कई बड़े कवि सम्मेलन का आयोजन होता ही रहता है।
अब मैं भारत भवन के उस अंग में आ पहुँचा हूँ जिसे देखने के लिए मैं सबसे ज़्यादा उत्सुक था।हाँ!! मैं पहुँच गया हूँ "अनहद"--यह भारतीय शास्त्रीय ,लोक और आदिवासी संगीत का केंद्र है।यहाँ कई प्रकार के संगीत सम्मेलन होते हैं जैसे-परम्परा,सप्तक आदि।अनहद अपने स्थापना से आज तक के गौरवमय यात्रा में कई दिग्गज कलाकारों की कला प्रस्तुति का साक्षी रह चुका है।चाहे वो पं जसराज हों या उस्ताद ज़ाकिर हूसेन या उस्ताद अल्लाह रखा हों या पं रविशंकर सभी के संगीत की गूँज सुनाई देती है यहाँ।अभी पिछले ही वर्ष यहाँ आगरा घराने पर एक संगीत गोष्ठी हुई था जिसमें मेरे गुरूजी उस्ताद वसीम अहमद खान को भी आमंत्रित किया गया था।
इसके बाद मैं "छवि" पहुँचा।यह भारत भवन का हाल में ही बना एक अंग है जो कि भारतीय सिनेमाओं के लिए एक केंद्र है।यहाँ पर कई राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं।
बहुत दिनों से इच्छा थी भारत भवन देखने की।वो आज पूरी हो गयी।मुझे इतना कुछ देखने के बाद ऐसा लगता
की शायद भारत में कोई दूसरा भारत भवन नहीं होगा।
सच-मुच भारत भवन अपने भारत नाम को साकार करता है।भारत के विविधताओं को संजो कर रखने और उसे लोगों के बीच पहुँचाने का काम भारत भवन पिछले कई दशकों बख़ूबी करता आ रहा है और यह आज भी जारी है।किसी कला प्रेमी के लिए यह किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं।।
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A legend, a composer, a performer, a musician and the torch bearer of ‘Ganga Jamuni Tehzeeb’ has left us. Yesterday was the death anniver...
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Pt Jasraj रविवार की सुबह अन्य दिनों के सुबह से काफी अलग होती है. ये सुबह कोलाहल से दूर संगीत के रियाज़ और सुबह के रगों में खोने का होता...