Tuesday, 13 December 2016

सुनता है गुरु ज्ञानी...

आज मैं बात करूँगा एक किताब की, जिसमें संगीत के शीर्षस्थ ११ कलाकारों से संवाद है। पुस्तक का नाम है -"सुनता है गुरु ज्ञानी" की। ऐसा कहा जाता है कि ध्रुपद की बात गुंडेचा बंधु के चर्चा के बिना अधूरा है। इस पुस्तक में गुंडेचा बंधु ने बड़ी ही सरलता से म्यूज़िक के अलग-अलग पहलुओं पर शास्त्रीय संगीत के बड़े-बड़े दिग्गजों की बातें लिखी है। हालाँकि यह पुस्तक एक संवाद के रूप में लिखा गया है।किताब १८५ पृष्ठ की हैं और यह भोपाल के ध्रुपद केंद्र से प्रकाशित हुई है। किताब बारे में लिखते हुए लगा कि पंडित मुकुल शिवपुत्र के बारे में पाठकों को बहुत कुछ जानने की ज़रूरत है। मुकुल
शिवपुत्र पंडित कुमार गंधर्व के पुत्र और शिष्य हैं और वे गुंडेचा बंधु से बात-चीत के दौरान ये बताते हैं कि कुमार गंधर्व एक गुरु के रूप में कैसे थे।मुकुल शिवपुत्र बताते हैं की कैसे उन्हें हर राग की तालीम दी जाती थी उनके पिता के द्वारा जो की हिंदुस्तान के सर्वकालीन सर्वश्रेठ गायकों में से एक थे।इसके अलवा कई और विषयों पर भी पंडित जी ने अपनी बात रखी है इस अध्याय में। वहीं दूसरी ओर उस्ताद रहीम फ़हिमुद्दीन डागर ने इस पुस्तक में मुख्यतः डागर घराने के गायकी और उसूलों पर अपनी सोच रखी है।तानसेन के हिन्दू होने या मुसलमान होने पर भी उन्होंने अपनी बात रखी है और बड़े ही सरल ढंग से यह बताने की कोशिश की है की किसी भी धर्म से होने से किसी की संगीत अथवा उसकी गायकी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। पुस्तक के तीसरे अध्याय की बात करें तो इसमें पं. देबू चौधरी से संगीत के अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा है जिसमें पंडित जी ने मुख्यतः आज कल शास्त्रीय गायन में हार्मोनीयम के प्रयोग और संगीत की शिक्षा पद्धति में बदलाव पर अपनी बात रखी है।उनका मानना है कि हार्मोनीयम कभी भी शास्त्रीय गायन में संगत के तौर पर इस्तमाल नहीं होना चाहिए।इसके कई कारण पर इस पुस्तक में चर्चा की गयी है। पुस्तक में देश के महशूर संतूर वादक पं शिव कुमार शर्मा से गुंडेचा बंधुओं की वार्तालाप है।इस पाठ में पंडित जी ने बड़े ही रोचक अन्दाज़ में अपने वाद्य संतूर का इतिहास बताया है और अपने आज तक के संगीतमय सफ़र का भी वाख्या किया है। जयपुर घराने की दिग्गज किशोरी अमोनकर के बारे में भी किताब में चर्चा है। उनके बारे में पढ़कर पहली बात जो मुझे समझ आयी इस अध्याय से वो है कि विदुषी किशोरी जी एक स्पष्टवादी हैं और वो अपने विचारों को बड़ी स्पष्टता से रखा है इस पुस्तक में। विदुषी किशोरी अमोनकर ने अपने विचार फ़्यूज़न म्यूज़िक पर रखे हैं और उन्होंने अपने रियाज़ करने के तरीक़े के बारे में भी बतलाया है।और उन्होंने आज की पीढ़ी के लिए भी अपनी बात कही है इस पुस्तक में। इसके बाद के अध्याय में बात की गयी है भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी जी से। पंडित भीमसेन जोशी जी से बात करने के क्रम में लेखक उनसे आज के गायक उनके गायकी की नक़ल करते।इस पर उनकी बात जान ने की कोशिश की है साथ ही पंडित जी ने बंदिशों की प्रस्तुतीकरण पर भी अपनी बात रखी है इस अध्याय में। आगे चलते हैं और अगले अध्याय में बात-चीत है सरोद के उस्ताद -उस्ताद अमजद अली खान साहब से।उस्ताद जी ने पहले तो अपनी ख़ुशी इस बात पर ज़ाहिर की है कि एक संगीतकार दूसरे संगीतकार से बात कर रहा है और इस से पहले इस तरह की कोई पुस्तक नहीं आयी।इस अध्याय में उस्ताद जी से कई विषयों पर वार्तालाप की गयी है जैसे उनके अनुभवों के बारे में जब वे सरोद की तालीम दिया करते थे अपने शगिर्दों को।उस्ताद जी ने अपने पिता और अपने परिवार के बारे में भी काफ़ी कुछ कहा है।फ़्यूज़न म्यूज़िक, नए रागों की रचना इन सब विषयों पर भी अमजद अली खान साहब से बात किया गुंडेचा बंधु ने इस पुस्तक में। पुस्तक में देश के जाने-माने बाँसुरी वादक
पं.हरिप्रसाद चौरसिया जी से एक संवाद है गुंडेचा बंधु का।पंडित जी ने उनकी प्रारम्भिक शिक्षा और उनके स्कूली जीवन के बारे में बताया है इस अध्याय में।पंडित जी द्वारा फ़िल्मों में म्यूज़िक देने से ले कर अन्य बाँसुरी वादकों से उनकी वादन कैसे भिन्न है। इन सब के बारे में जान ने की कोशिश की गुंडेचा बंधु ने। बातों को आगे बढ़ाते हुए चलते हैं अगले अध्याय पर जिसमें बात कर रहे हैं गुंडेचा बंधु मशहूर तबलवादक पं सुरेश तलवलकर से।सबसे पहले गुंडेचा बंधु ने बात की शुरूआत करते हुए पंडित जी से आवर्तन के विषय पर बात की और आगे चल कर पंडित जी ने तबले के घरानों पर भी काफ़ी कुछ कहा। "मैं, मैं नहीं हूँ कोई और है" इस वाक्य से शुरू हुई गुंडेचा बंधु की वार्तालाप संगीत मार्तण्ड पं जसराज जी से।पंडित जी ने इस अध्याय में अपने बचपन की यादों को गुंडेचा बंधुओं से साझा किया है।आगे उन्होंने हार्मोनीयम का शास्त्रीय संगीत में उपयोग होने या ना होने पर भी अपनी बात कही है। आगे चलते हैं और अब हम आ पहुँचे हैं इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में जिसमें गुंडेचा बंधु ने अपने गुरु उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर के बारे में लिखा है उनसे हुई अपनी वार्तालाप को लिखा है। उस्ताद जी कहते हैं-"आवाज़ व्यक्तिगत है लेकिन 'स्टाइल' निजी नहीं है" । उस्ताद जी ने आज कल हो रहे इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा के इस्तमाल को ले कर अपनी नाराज़गी व्यक्त की है।उनका मानना है कि इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा में वो बात नहीं जो की एक तानपुरे में होती।आगे उन्होंने अपने विचार संगीत के घराने पर भी रखा है। इसके साथ ही हम पुस्तक के अंत पर आ पहुँचे। इसमें और भी कई रोचक और संगीत की बातें हैं। तो आपलोग इस पुस्तक को पढ़िए और आनंद लीजिए।निश्चित रूप से भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन दिग्गजों की राय इस विधा के विभिन्न बारीक पहलुओं पर प्रकाश डालता है और यह पुस्तक हर संगीत प्रेमी को पढ़नी चाहिए।फिर मिलेंगे और संगीत पर चर्चा को जारी रखेंगे।।

Sunday, 11 December 2016

A tribute to the Bharat Ratnas

India is a land of artistes and art dwells in every nook and corner of India. One such legendary artist the nation was blessed to have was Pandit Ravi Shankar. Rightly called “the godfather of world music”, the sitar maestro was a gem of Indian classical music. On December 11, 2016, it's his 4th death anniversary and on this occasion, I pay a tribute to him and his music.
     A Bengali Brahmin, he was born as Robindra Shankar in 1920 in the holy city of Varanasi. He was the one who initiated the use of Indian instruments in western music and thus introducing the sitar to the world wide music lovers. He performed frequently with the violinist Yehudi Menuhin, and composed a concerto with sitar for the London Symphony Orchestra. Pandit Jee was awarded with the Bharat Ratna and also three Grammy Awards in 1999. Its quite interesting but Pandit Jee started his performing career as a dancer in (his eldest brother) Uday Shankar’s troupe. He toured with the troupe from the age of 10 and started his study of the sitar only at 18. The song "sare jahan se accha" written by Md. Iqbal in 1904 was put on tune by this great maestro only in 1945.
  Its not possible to talk everything about this great maestro in one small post. Though he left us in 2012 but he is still been remembered by the music lover across the globe through his music.
    December 11, 2016, its also the 12th death anniversary of another bharat ratna and a great musician Vidhusi MS Subbulakshmi. One of the finest musician India ever produced she was the one who was awarded by Bharat Ratna for music for the very first time. I had recently talked of her and her music in my past post. Here is a quite interesting fact about her. Like music she was also known for her Kanjeevaram saris. A particular shade of blue saris (known as the ‘mayil kazhuthu kalar’ saris)
became popular as ”M.S. Blue”.
Subbulakshmi passed away on December 11, 2004 at the age of 88. She had mesmerized audiences both in India and abroad with her music. As a person she was humble and had a deep compassion for the poor. She represented the soul of Indian music.
  These musicians were a real gem or Ratna for the country. They brought the Indian music at the global platform and gave their life to the music. We really feel proud to be from the country of these great musicians.Once again I pay my tribute to these Bharat Ratnas of their death anniversary.

Thursday, 10 November 2016

The Fifth Note- A very pious initiative

Vocalist Ustad Rashid Khan who has enthralled the music lovers across the world, Pt Tanmay Bose a world famous tabla player and Pt Debojyoti Mishra a renowned film composer and a well known guitarist were on stage and the people from audience were all free to ask any questions or have conversation with these great maestros. The Jai Hind Auditorium at Mahamayatala Kolkata was jam
packed for this never like event. The event TFN- The Fifth Note, was an initiative of Shakri Begum Memorial Trust headed by Ustad Rashid Khan. It was a two day event, though I had missed the first day but I was lucky enough to attend it on the second day. I would really thank TFN for providing me an entry to this event through their quiz contest on facebook.
   Anyway, the second day of the event kickstarted with Sahona Khan acquainting the audience with the purpose of the TFN. What I understood was TFN is an organisation to promote and groom the upcoming and budding artists from any genre of music or dance. The students from Rabindra Bharti University, students from the Shakari Begum Memorial Trust, some gurus of music and dance and of course some music students from different states of India including me from Bihar were all ready with their questions to these great maestros. Finally the curtains from the stage were moved up and now audience could see Ustad Rashid Khan, Pt Tanmoy Bose and Pt Debojyoti Mishra sitting on the stage.Now madam Jyoeeta Basu Khan took hold the mic and in a very lively way she anchored the whole event. Rabindra Nath Tagore- a name without which discussions on music is incomplete. So, the discussions started with Gurudev's songs being sung by Ustad Jee in his mellifluous voice. He clearly showed how Guru dev's songs were based on raagas. Later, the students asked some questions to the maestros to which the maestros answered in a very informative way. It was really unfortunate for me that I could not comprehend the whole conversation due to my lack of Bangla language. I guess many people from other states had this problem so it would had been better if people would have conversed in either English or Hindi as well. Ustad Jee shared his experiences at SRA.How he would do his Riyaz while walking on the SRA lawns so that his guru couldn't hear him. He even said that there is no age of learning.Haidar Khan Sahab was one such musician who learnt music upto some extent in just 6 months at an very old age said Ustad Jee.Ustad Jee was very clear in his convection that there is no age barrier for learning anything.
       The discussions included all music genres whether it is dhrupad or khayal, trivat or western music.The maestros talked on everything. Trivat- a very interesting form of music I came to knew that day only. It's a combination of pakhawaj rhythms, tabla rhythms and bandish. Students from Shakri Begum Memorial Trust presented a triwat and the hall auditorium was spell bound. Even Sufi music was discussed and presented to the audience by a student. To add to the musical discussions was the singing of Ustad Jee. What can I say of his singing? In his melodious voice he sang a bandish in raag Puriya Kalyan perfectly accompanied by Pt Debojyoti Mishra on guitar.
  It is really a great initiative. Looking forward for the further TFN activities.Hopefully this initiative of "TFN" will help in making of many Pandits, Ustads and Vidushies. One thing which inspired me the most was Ustad Jee's saying that there is no shortcut for success in these fields.

Wednesday, 26 October 2016

A true genius....MS Subbulakshmi

A child prodigy to a singing movie star to the Carnatic icon she became in her lifetime. From achieving the prestigious Magsaysay Award to the Bharat Ratna, she definitely was a legend.
   Who is a legend? What makes a person legend? A person who represented a nation for the first time at UN that too through her music. A voice which echoes in the ears of billions of music lovers across
the world. A person who had travelled around the world as the countrys' Cultural Ambassador.These all definitely make the definition of a legend.Yes! its evident I am talking of one of the greatest musician India ever produced, a Carnatic Music legacy-MS Subhalakshmi. The year 2016 will be remembered for celebrating the birth centenary of this great legend. As I wrote above she was the one who represented India at the United Nations' General Assembly through her divine music. It was 23rd October 1966 and its 5 decades since she performed there. The United Nation,a Global body honoured this Global citizen on the eve of her 50th anniversary of her performance there.The UN Postal Administration issued stamp to mark Subbulakshmi’s 100th birth anniversary and also marking the 50th anniversary of her memorable performance at the General Assembly.
   This year has three major dates. First is the birth centenary of MS Subbulakshmi herself. The second is the Golden Jubilee of her UN concert! It is also the 70th year of India’s independence! The United Nations is celebrating all these occasions. In connection with this the United Nations had invited several artistes from India to perform on India’s Independence Day. Music director A R Rahman  paid his tribute to MS at the UN General Assembly.
   People said she was a divine manifestation. The flawless singer whose voice had a divine power, Her breath control with complete adherence to shruti had really made a billion music lovers fan of her.Her fan list included people like Mahatma Gandhi, Pt Jawaharlal Nehru, Sarojni Naidu.Sarojni Naidu after listening her performance once exclaimed Subbulakshmi was Meera come to life.
       Jawahar Lal Nehru called her the Queen of Music, Sarojini Naidu called her the Nightingale of India, Ustad Bade Ghulam Ali Khan called her Suswaralakshmi, and Lata Mangeshkar called her Tapaswini.
  This legendary singer will always be remembered among the music lovers throughout the globe through her music. India and we Indians are really proud to produce such a musician. The celebrating of her's birth centenary by UN on such a large scale speaks a milliom words. She really was a ratna-A Bharat Ratna.

Sunday, 9 October 2016

सरोद के उस्ताद...

जिस कलाकार ने दुनियाभर को अपने संगीत का रसिक बना रखा हो, जिन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे अनेकों पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका  हों और जिन्होंने ने 24 रागों की रचना की चुकी हो,वैसे कलाकार को उनके ७१ वें जन्मदिन पर मेरा शत्-शत् नमन।जी हाँ! आज ९ अक्तूबर है और आज जन्मदिन है "सरोद सम्राट" उस्ताद अमजद अली खान का।छह साल की उम्र से संगीत सीखने वाले उस्ताद अमजद अली खां साहब अपने परिवार की छठी पीढ़ी हैं जो संगीत को आगे बढ़ा रहे हैं। उस्ताद जी संगीत के लिए प्रसिद्ध बंगश घराने से आते हैं और उन्होंने अपनी तालीम अपने पिता उस्ताद
उस्ताद अमजद अली खान
हाफ़िज़ अली खान से ली है।उस्ताद हाफ़िज़ अली खान ग्वालियर घराने के सभा-संगीतज्ञ थे।इन्हें भी भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
    अमजद अली खान साहब का व्यक्तित्व इतना सहज लेकिन इतना प्रभावी है कि मशहूर निर्देशक गुलजार ने 1990 में उन पर फिल्म प्रभाग की तरफ से ‘अमजद अली खान’ शीर्षक से एक वृतचित्र फिल्म का निर्माण किया और इस फिल्म को उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ वृतचित्र का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।आज के दौर में जहाँ शास्त्रीय संगीत में वाद्य-यंत्र के प्रति लोगों की अभिरुचि कम होती जा रही है वैसे में भी उस्ताद जी सरोद जैसे वाद्य की मधुर झंकार से लोगों को देश-विदेश में अपना क़ायल बना रखा है।ईरान का वाद्य 'रबाब' को भारतीय संगीत परंपरा एवं वाद्यों के अनुकूल परिवर्धित करके निर्मित किया गया। यह नया वाद्य यंत्र ही 'सरोद' कहलाया जिसका अर्थ होता है मेलोडी अर्थात मधुरता है।भारत ही नहीं, पूरा विश्व आज इनसे संगीत की दीक्षा लेना चाहता है।उस्ताद जी ने देश-विदेश के अनेक बड़े संगीत सम्मेलनों में संगीत प्रस्तुत कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है। इनमें कुछ प्रमुख हैं- रॉयल अल्बर्ट हॉल, रॉयल फेस्टिवल हॉल, केनेडी सेंटर, हाउस ऑफ कॉमंस, फ्रैंकफुर्ट का मोजार्ट हॉल, शिकागो सिंफनी सेंटर, ऑस्ट्रेलिया का सेंट जेम्स पैलेस और ओपेरा हाउस आदि।इन्होंने ग्वालियर में एक म्यूज़ीयम "सरोद घर" भी खोल रखा है जहाँ सरोद से जुड़े फोटो, दस्तावेज, शास्त्रीय संगीत पर किताबें, लेख आदि का एक ख़ज़ाना है।
   उस्ताद जी का मानना है कि "संगीत एक इबादत है क्योंकि वह खुदा की देन है और दुनिया का हर धर्म संगीत के जरिये ही इबादत करता है. मस्जिद की अजान और मंदिर के घंटे-घड़ियाल इसी मौसिकी की एक मिसाल है।"प्रसिद्ध भरतनाट्यम नर्तकी सुब्बालक्ष्मी उनकी धर्मपत्नी हैं।
   महात्मा गांधी की 144वीं जयंती पर जब संयुक्त राष्ट्र की विशेष सभा में राष्ट्रपिता को संगीत से श्रद्धांजलि देने की बारी आई तो इस कार्य के लिए भी उस्ताद अमजद अली खान को चुना गया था।उस्ताद जी ने अपने संगीतमय घराने को आगे बढ़ाते हुए अपने दो पुत्रों उस्ताद अमान अली और उस्ताद अयान अली को भी इस वाद्य की तालीम दी और अपने पिता की तरह हो ये दोनों भी अपने संगीत से दुनिया भर में अपनी एक पहचान बना चुके हैं।
 बातें तो और भी हैं पर बाक़ी बातें फिर कभी।एक बार फिर उस्ताद अमजद अली खान साहब को मेरा नमन।।

Sunday, 25 September 2016

बिस्मिल्ला की शहनाई ...

बनारस की सुबह, गंगा का कल-कल बहता पानी, सूर्योदय की हल्की हल्की लालिमा,वातावरण में एक अद्भुत शांति और सुकून और उस गंगा के किनारे से आती हुई शहनाई की मधुर आवाज़।ऐसा लगता जैसे कोई गंगा को ही शहनाई सुना रहा हो।हाँ!! यह शहनाई और कोई नहीं बल्कि उस्ताद बिस्मिल्ला खान सुना रहे होते थे।पद्म श्री,पद्म भूषण,पद्म विभूषण, भारत रत्न जैसे सभी पद्म पुरुष्कारों से जिन्हें सम्मानित किया गया था।ऐसा नाम जो शहनाई का पर्याय सा बन चुका था।उस्ताद जी ऐसे थे जिन्होंने शहनाई को एक शादी-ब्याह में बजाए जाने वाले वाद्य से बढा कर एक शास्त्रीय संगीत के वाद्य के रूप में स्थापित किया।अपने चाचा अली बख्श 'विलायती' साहब से उस्ताद जी ने अपनी शहनाई की तालीम ली थी।उस्ताद जी का व्यक्तित्व बनारस के हर रंग से रंगा हुआ था।उनका व्यक्तित्व  गंगा-यमुना तहज़ीब को सही अर्थ में सार्थक करता था।बिस्मिल्ला खान साहब कहते थे-"संगीत वो चीज़ है जिसमें जात-पात नहीं देखा जाता,संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।"उनके लिए तो शहनाई बजाना अल्लाह के इबादत जैसा था।शहनाई को तो उन्होंने अपनी बेगम का दर्जा दे रखा था अपनी बेगम की मृत्यु के बाद।सहजता,सरलता और सुगमता ही उनकी फ़क़ीरी व्यक्तित्व की पहचान थी।
          उस्‍ताद जी  का जन्‍म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को एक मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खां और मिट्ठन बाई के यहां हुआ था और यह वर्ष हम उनकी शताब्दी मना रहे हैं।मैं यहाँ बिस्मिल्ला खान साहब से जुरी एक बड़ी ही रोचक बात  बताना चाहूँगा, उस्ताद जी की माँ कभी नहीं चाहती थीं की उनका पुत्र एक शहनाई वादक बने।ऐसा इसलिए क्यों की उनकी माँ इसे बहुत उपयुक्त काम नहीं समझती थी।उनका मानना था की शहनाईवादकों को सिर्फ़ शादी-ब्याह में बुलाया जाता था।१५ अगस्त १९४७ को जब हमारा देश आज़ाद हुआ तब उस्ताद जी की ही शहनाई की फूँक लाल क़िले पर गूँज रही थी तब से ये एक प्रथा सी बन गयी की हर आज़ादी दिवस पर लाल क़िले पर ध्वजारोहन के बाद उस्ताद जी की शहनाई बजाई जाएगी।उस्ताद जी ने वैसे  दौर में भी गाना-बजाना किया जब की इसको सम्‍मान की निगाह से नहीं देखा जाता था, तब ख़ां साहब ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनें बजा कर शहनाई जैसे वाद्य को एक देश-
विदेश में एक अलग ही पहचान दिलाई।
   शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-
तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।..
    उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खान की शहनाई की धुन बनारस के गंगा घाट से निकलकर दुनिया के कई देशों में बिखरती रही। उनकी शहनाई अमेरिका,एशिया,अफ़्रीका जैसे सभी महाद्वीपों में गूँजी।उनकी शहनाई की गूंज से फिल्‍मी दुनिया भी  अछूती नहीं रही। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें बजाईं। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म‘स्वदेश’ के गीत‘ये जो देश है तेरा’में शहनाई की मधुर धुन बिखेरी।उनकी मरते दम तक यह ख़्वाहिश थी कि वो कभी इंडिया गेट पर शहनाई बजाएँ किंतु यह ख़्वाहिश उनकी पूरी न हो सकी।यक़ीन मानिए उनकी व्यक्तित्व,उनकी तहज़ीब,उनकी सोच, उनकी संगीत जो हर भेद-विभेद से ऊपर रहा। आज की परिस्थितियाँ उन्हें और उनकी व्यक्तित्व को और भी प्रासंगिक बना दिया है।
     

Thursday, 8 September 2016

सपने सच होते हैं...

मैं क्या गाऊँ?  कैसे गाऊँ?  कुछ समझ नहीं आ रहा।और ऐसा हो भी क्यों ना? आख़िर इतने बड़े-बड़े संगीत के दिग्गज जो सामने बैठे हैं। यह किसी सपने से कम नहीं।पंडित नरेंद्र नाथ धर, पंडित ओमकर दादरकर, उस्ताद अकरम खान और मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान जैसे दिग्गज मेरे सामने बैठे हैं और इस से भी बड़ी बात तो यह की यह सब अपनी प्रस्तुतियाँ इसी मंच पर देंगे जिसपर अभी मैं बैठा हूँ।मैं गाने बैठा हूँ और मेरे साथ संगत कर रहे तबले पर पंडित संजय अधिकारी और हार्मोनीयम पर पंडित हिरणमय मित्र।बचपन से ही मैंने इन्हें पंडित अजय चक्रबर्ती,कभी विदुषी गिरजा देवी,तो कभी अपने गुरु जी के साथ संगत करते देखता आया हूँ।आज ऐसा लग रहा था जैसे मेरा बचपन से देखा हुआ सपना सच हो रहा हो।वो सपना जो मैं हर-बार देखता था जब भी किसी बड़े संगीत के कार्यक्रम में जाया करता था।हमेशा सोचता था क्या मैं भी कभी ऐसे गा पाउँगा? आज लग रहा था वो सब सच होने वाला था।
    आज मुझे कलाम साहब की कही हुई -"आपका सपना सच हो, इसके लिए जरूरी है कि आप सपना देखें।" पंक्ति का अर्थ समझ आ रहा है।अगर कोई सपना देखे और उसके अनुरूप कार्य करे तो निश्चित ही वह पूरा होगा।छोटे शहर-क़सबे से होना किसी भी तरह से रुकावट नहीं बन सकता।अब देख़ये न अभी-अभी रीयो अलिम्पिक्स ख़त्म हुआ है और दीपा कर्मकार जैसी जिमनास्ट जिसने दुनिया भर में ख़ुद की पहचान बनाई,आती हैं भी तो कहाँ से? त्रिपुरा से! एक सुदूर, उत्तर-पूर्वी राज्य,एक ऐसा राज्य जिसे पिछडा राज्य माना जाता।किंतु क्या उस पिछड़े राज्य से होना कहीं भी दीपा के लिए रुकावट बना?
    अब आइए संगीत की दुनिया से बात करें तो शायद ही ऐसा कोई होगा जो उस्ताद बिस्मिल्ला खान को नहीं जनता होगा।ऐसा व्यक्ति जिसने शहनाई जैसे वाद्य को दुनियाभर में केवल पहचान ही नहीं दिलाई बल्कि लोगों का उस वाद्य के प्रति नज़रिया भी बदल दिया।क्या आप जानते हैं इनकी जन्म भूमि क्या थी?ये और कहीं नहीं बल्कि बिहार के छोटे से ज़िले डुमराव से थे।क्या इनके लिए भी छोटे,अविकसित ज़िले से होना कहीं भी बाधा बना?
   एसे अनेकों उदाहरण हैं कितने गिनाओ? ये बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं अगर आप किसी बड़े ख़ानदान से हैं, किसी बड़े जगह से हैं तब ही आप इन क्षेत्रों में कामयाब हो सकते।जरुरत है तो बस लोगों को अपनी नज़रिया को बदलने की। आज मैं अपने कक्षा के कुछ मित्रों से बात कर रहा था की वो आगे अपनी जिंदिगी में क्या सपने देखते हैं तो मैंने यह पाया ज़्यादातर लोग डॉक्टर,इंजिनीर जैसे परम्परागत क्षेत्रों में जाना चाहते।लोगों के बीच एक ऐसी अवधारणा है केवल यही सब हैं जिनमे जा कर बच्चे कामयाब हो सकते।आज कल के विद्यालयों से कई आईआईटियन्स,डॉक्टर निकलते लेकिन मैं पूछता हूँ क्यों नहीं कोई संगीतकार,पेंटर,डान्सर,लेखक निकलता? ऐसा इसलिए कि ज़्यादातर विद्यालयों में इन सब विधाओं पर ध्यान और प्रोत्साहन  नहीं दिया जाता।
   मैंने हाल में ही यूटूब पर एक विडीओ देखा जिसमें श्री राजदीप सरदेसाई बिहार का दौरा कर रहे हैं और उन्होंने बिहार के किशोरों से भी बातें की।मुझे जान कर आश्चर्य हुआ कि यहाँ भी सभी सिर्फ़ परम्परागत कैरियर में आगे जाना चाह रहे हैं।ऐसा कोई नहीं जो संगीत,नृत्य,लेखनी,अदाकारी जैसे विधाओं में आगे जाना चाहता हो।अगर कोई इन सब विधाओं पर ध्यान नहीं देगा तो आगे चल कर ये सब समाज से विलुप्त हो जाएँगी।जरुरत है तो वैसे किशोरों को बढ़ावा देने की जिनमे कुछ भी ईश्वर प्रदत हुनर मौजूद हों।उन्हें सही मार्गदर्शन प्रदान करनी की जिससे उन्हें ऐसा लगे कि इन विधाओं में भी आगे बढ़ा जा सकता है, कुछ किया जा सकता है।
        आज जब हमारे प्रधान मंत्री "कौशल विकास" को ले कर काफ़ी सक्रिय हैं तो मैं पूछता हूँ क्या किशोरों में मौजूद ईश्वर प्रदत कौशलों को विकसित करने की ज़रूरत नहीं? क्या उन्हें सही दिशा, मार्गदर्शन देने की ज़रूरत नहीं? आख़िर इन सब को कौशल विकास में क्यों नहीं सम्मलित जाता? यक़ीन मानये अगर किशोरों के हुनरों को सही दिशा दी जाए तो हमारे देश के भी खाते में कई अलिम्पिक पदक आ सकते हैं।हमारे देश से और भी कई अमृता शेरगिल जैसे पेंटर निकल सकते।
 जब मैं रीऐलिटी शोज़ देखता तब पता चलता की हमारे देश मैं कई हुनर मौजूद हैं।लेकिन यहाँ भी ज़्यादातर रीऐलिटी शोज़ सिर्फ़ फ़िल्मी गानों के लिए होते।शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा देने के लिए तो कोई मंच ही नहीं।
   यहाँ मैं आई॰टी॰सी॰एसआरए का ज़िक्र करना चाहूँगा। आईटीसी जो की मुख्यत एक सिगरट्टे बनाने की कम्पनी है उसने अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी और ऐसी विधाओं को बढ़ावा देने के लिए एक संगीत गुरुकुल खोल रखा है जिसमें भारत के कई दिग्गज गुरु पं अजय चक्रबर्ती से लेकर विदुषी गिरजा देवी, मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान से ले कर पं ओमकर दादरकर तक, जैसे गुरु कई संगीत में रुचि रखने वाले बच्चों को तालीम दे रहे हैं।तो मैं पूछता हूँ बाक़ी कम्पनियों को क्या इन विधाओं को बढ़ावा देने के लिए ख़ास कर छोटे शहरों में खुल कर आगे नहीं आना चाहिए?
आज कल छोटे शहरों में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम न के बराबर होते हैं।ऐसा नहीं है की मैं सिर्फ़ संगीत की बात कर रहा स्पोर्ट्स,पेंटिंग,नृत्य सब विधाओं की कुछ ऐसी ही स्थिती है।
   इस तरह की विधाओं के प्रति प्रत्येक परिवार, समाज,विद्यालय और सरकार इन तमाम स्तरों पर सोच बदलने की अवयस्कता है और किशोरों में ईश्वर प्रदत इन कौशलों को तराशने के लिए सही दिशा, सही मार्गदर्शन, वातावरण और आधार भूत संरचना देने की आव्यशक्ता है ताकि अपने सपनों को साकार करने की दिशा में एक विश्वास के साथ क़दम आगे बढ़ा सकें।यक़ीन मानिए अगर आपके पास सपना है,जुनून है,अनुशासित रियाज़ या अभ्यास है आपको अपने सपने को साकार करने में कोई बाधा नहीं बन सकता।सपना और जुनून बिना किसी संरक्षण के आदि काल में भी साकार हुए हैं। हाँ मैं बात कर रहा हुँ महाभारत काल के महान धनुनर्ध एकलव्य की।हाँ ये सत्य है की शून्य से शिखर तक की यात्रा को काफ़ी दुर्गम डगर से गुज़रना परता है।
  और देख़ये कलाम साहब, जिन्हें मैं अपना आदर्श मानता उन्होंने ने भी ऐसा ही कुछ कहा है-
   "मेरा संदेश, खास तौर पर युवा पीढ़ी के लिए यह है कि उनमें हिम्मत हो कि वह कुछ अलग सोच सकें, हिम्मत हो कि वह कुछ खोज सकें, नए रास्तों पर चलने की हिम्मत हो, जो असंभव हो उसे खोज सकें और मुसीबतों को जीत सके और सफलता हासिल कर सके।।"

Sunday, 28 August 2016

From Gwalior to Agra...From Sarod to Tabla---A day Unforgettable

Birth anniversary celebrations are always special and they become more special when it’s the 100th birth anniversary celebrations. So, when it comes to the celebration of the centenary birth anniversary of Late Sangeet Bhaskar Rajkumar Shyamanand Singh,well known personalities from the music fraternity came together under one roof for a special show. The event started with the garlanding of Sangeet bhaskar's big portrait kept on the stage. People started rendering their homage and respect to the large portrait. 
   It was a great privilege for me being a great grandson of baba (Rajkumar Shyamanand Singh) I got an opportunity to pay my musical tribute to him. The musical events of the day started with me rendering raag bhairav. I sang two bandishes in this raag "prabhu charan tore aayo" in jhaptaal and "jag jag jagga" in drut teentaal. And now finally the time came when people would hear the maestro, Pt Omkar Dadarkar live on the show. In his sweet and melodious voice he started with raag miyan ki todi. The mellifluous singing of Pandit was enough to take the listeners in a musical trance.In modern day very few people are seen continuing their traditions Pt Omkar Dadarkar is one of them,taking the musical legacy of his guru Pt Ulhas Khasalkar successfully to the next generation. He ended his mesmerising performance with the very famous bhajan "baje re muralia baje".
The accomplished Sarod player Pt Narendra Nath Dhar was next to spellbound the music lovers. He being accompanied by the tabla maestro Ustad Akram Khan was a perfect combination to struck the listeners in a soothing musical storm. He performed raag aashavri. Now it was 2 in the afternoon and the musical session came to a halt for the lunch.
    The evening session kickstarted with the magic of the icon of ajrara gharana Ustad Akram Khan on tabla. The very special compositions of his gharana being played by him flowlessly compelled the listeners to move their heads and feet on his tabla beats.The audience were still in awe when the Ustad's performance ended and then the Ustad was followed by the another Ustad of Agra gharana. Yes!! I am talking of Ustad Waseem Ahmed Khan. Being  from the great lineage of agra gharanians Ustad's singing was enough to take the whole event to the next level. The jam packed auditorium, the pin drop silence, the expressions of music lovers wanting to never stop the wonderful evening was a clear symbol that the program was already a grand success. Ustad Waseem Ahmed Khan sang the beautiful "kaun gat bhaiye"in bageshwari  followed by two compositions in megh malhar "rim jhim rim jhim meha barse" and "aaye aati dhum dham", the two very famous bandishes of the agra gharanians. Finally the musical day came to an end with "bano baatiyan kahe ko jhuti" in raag bhairvi by the Ustad.. An unforgettable day for the music lovers of this small town Purnea has ended.
   The program won't had been to the level if these artists were not been accompanied by such great accompanists. The wonderful accompaniment of Pt Sanjay Adhikari on tabla, the melodious accompaniment of Ustad Sarwar Hussain on Sarangi and the mesmerising accompaniment of Pt Hiranmay Mitra on harmonium were a key factor to turn the event into a GRAND EVENT. To add to the event was the presence of Padma Shri Gajendra Narayan Singh, a well known musicologist from Bihar.


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Ustad Waseem Ahmed Khan
Ustad Akram Khan and Pt Narendra Nath Dhar

                                                                                                                  


Pt Omkar Dadarkar


Wednesday, 24 August 2016

आज बातें ग्वालियर घराने की...

आज मेरी सुबह हुई उस्ताद अब्दुल रशीद खान की "काहे को गरबा किनो" ठुमरी के साथ।वैसे तो इन्होंने ४००० ठुमरियाँ से ज़्यादा की रचना की लेकिन यह ठुमरी उनमें से सबसे ज़्यादा लोकप्रिय ठुमरियों में से एक है।"रसन पिया" के नाम से मशहूर उस्ताद अब्दुल रशीद खान ख़याल और ठुमरी के साथ-साथ ध्रुपद और धम्मार भी गाया करते थे।इन्होंने अपने संगीत की तालीम उस्ताद बड़े यूसुफ़ खान और उस्ताद छोटे यूसुफ़ खान से ली थी और उस्ताद अब्दुल  रशीद खान हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरातन घराना "ग्वालियर" घराने से आते थे।इनको अपने १०८ वर्ष के जीवन में कई पुरुष्करों से नवाज़ा जा चुका है।आई॰टी॰सी अवार्ड,संगीत नाटक अकैडमी अवार्ड,रस सागर अवार्ड,पद्म भूषण ये सारे अवार्ड इन्होंने अपने १०८ वर्षीय संगीतमय जीवन में प्राप्त किए।एक और ख़ास बात बताना चाहूँगा यहाँ उस्ताद अब्दुल रशिद खान सबसे उम्रदराज़ व्यक्ति हैं जिन्हें पद्म भूषण से
सम्मानित किया गया हो।
इसी वर्ष १६ फ़रवरी को इनका देहांत हुआ।अपनी जिंदिगी के आख़री क्षण तक itc sra में गुरु के दायित्व का निर्वाह करते रहे।वैसे तो मैंने इन्हें कभी सामने से नहीं सुना किंतु इनके दर्शन ज़रूर हुए थे जब आज से ४ वर्ष पूर्व SRA के सालाना संगीत सम्मेलन में गया था।
   इस वर्ष केवल इन्हें ही नहीं खोया हमने बल्कि इसी घराने की एक और विदुषी ने भी हम से हमेशा के लिए विदा ले ली।जी हाँ! मैं बात कर रहा हुँ विदुषी वीना सहस्रबुद्धे की।वो भी इसी अदभुत घराने "ग्वालियर घराने" से आती थीं।वैसे इनकी गायकी में कुछ हद तक जयपुर और किराना घराने की भी छाप दिखाई देती थी।इन्होंने अपनी संगीत की तालीम पद्मश्री बलवंतरि भट्ट,पं वसंत ठाकर और पं गजानन राउ से ली थी।ख़याल के साथ-साथ भजन के लिए भी जानी थी विदुषी वीना सहस्रबुद्धे।इनकी गायकी के लिए इन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है जैसे-राष्ट्रीय संगीत नाटक अकैडमी पुरस्कार,उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकैडमी अवार्ड।इन्होंने अपनी गायकी से कई बड़े संगीत सम्मेलनों में लोगों को अभिभूत किया है।२९ जून २०१६ को इन्होंने हमलोगों को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
  देख़ये ग्वालियर घराने की दो दिग्गजों की इतनी बातें की मैंने तो थोड़ी बातें तो ग्वालियर घराने की भी बनती है।इस घराने के जन्मदाता उस्ताद हससु खान,उस्ताद हद्दु खान के दादा पिरबक्स को कहा जाता है।ग्वालियर घराने की गायकी की मुख्य विशेषतायें में खुली आवाज़ में गायन,ध्रुपद अंग से मिलती जुलती गायकी,सीधी-सपाट तानों का प्रयोग,तानों में
गमक का प्रयोग; आती हैं।इस घराने में हमारे देश को कई नायाब संगीतकार दिए।पं विष्णु दिगम्बर पलूसकर,पं गुरुराउ देशपांडे,कृष्णराउ शंकर पंडित,उस्ताद फ़तह अली खान सब इसी घराने की देन है।अगर आज के संगीतकरों की बात करूँ तो विदुषी मालिनी रजरकर,पं विनायक टोरवि,मीता पंडित जैसे दिग्गोजों का नाम स्वतः ज़ेहन में आता है।अगर ग्वालियर घराने की बातें करता रहूँ तो शायद यह कभी ख़त्म ही ना हो।लेकिन आज बस इतना ही।अगली बार फिर संगीत पर बातों का सिल-सिला जारी रहेगा।।

Saturday, 20 August 2016

जानिये एक ऐथलीट तबलवादक को...


हाल ही में कोलकाता जाना हुआ। वहाँ मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान रहते हैं। गुरु जी इस दफ़े मुझे ख़याल गायकी की बारीकियों से अवगत करा रहे थे। 


जिस दिन मैं गुरु जी के घर गया था, उस दिन कोलकाता में रिमझिम बारिश हो रही थीं, जिस वजह से मौसम ख़ुशनुमा बना था। इसी दौरान गुरु जी के घर एक मस्त और हरफ़नमौला व्यक्तित्व के धनी संजय अंकल (पं संजय अधिकारी) पहुँचते हैं। 


संजय अंकल के तबले की थाप मैंने कभी विदुषी गिरजा देवी तो कभी पं अजय चक्रबर्ती तो कभी मेरे गुरु जी उस्ताद वसीम अहमद खान तो कभी पं ओमकार दादरकर के साथ सुनी है। लेकिन मुझे उनका तबला वादन जितना खिंचता है उतना ही उनका व्यक्तित्व भी। वजह है उनका 'स्पोर्ट्स मेन नेचर'। 

इस बार लगभग ५ वर्षों के बाद उनसे मुलाक़ात हुई।  वे  इस बार भी उतनी ही ऊर्जा से लैस थे और हाँ, वही मुस्कुराहट उनके चेहरे पर तैर रही थी। यह सब गुण खिलाड़ी का होता है और हो भी क्यों नहीं, दरअसल संजय अंकल एथलीट हैं। आप चौंक गए न ! 

आज  जब पूरी दुनिया ओलम्पिक में खोई है तब यह बताना ज़रूरी है कि मशहूर तबला वादक संजय अंकल धावक भी रहे हुए हैं और राज्य स्तरीय और ज़िला स्तरीय प्रतिस्पर्धा में भी अपनी छाप छोड़ी है।


मुझे लगता है कोई भी साधना हो संगीत हो,स्पोर्ट्स हो,नृत्य हो या अन्य कोई विधा हो।किसी में भी शिखर पर पहुँचने के लिए एकाग्रता तो चाहिए ही चाहिए।

 संजय अंकल से जब बात होने लगी तो उन्होंने कहा कभी ख़ुद भी नहीं सोचा था कि संगीत में आएँगे।वैसे वो संगीत में आएँ भी क्यों ना?
आख़िर सब के नसीब में कहाँ होता पं कुमार बोस जैसा गुरु?  इन्होंने अपने तबले की तालीम की शुरूआत श्री आशीष रॉय चौधरी से की थी।और आज इन्हें आप हिंदुस्तान के शीर्षथ कलाकारों के साथ संगत करते पा सकते हैं।विदुषी गिरजा देवी,उस्ताद मशकूर अली खान,पं उल्हास खसालकर जैसे दिग्गज के साथ इन्हें संगत करने का सोभाग्य प्राप्त है।१९९६ में इन्हें "तालश्री" पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

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Tuesday, 26 July 2016

'संगीत के पुजारी 'बाबा श्यामानन्द सिंह



मैंने बहुत सारी बातें की आज के कलाकारों पर,बहुत सारे पोस्ट लिखे उन लोगों पर और आगे भी उन पर चर्चा करता रहूँगा,लिखता रहूँगा।किंतु,आज मैं आपलोगों को ले चलता हुँ आज से १०० वर्ष पूर्व।तारीख़ २७ जुलाई का साल १९१६ और स्थान चम्पानगर में जन्म लिया एक महान बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने।एक ऐसा मानव जो गायक था ,साधक था,खिलाड़ी था,शिकारी था,जिसमें करुणा और संवेदना भी भरपूर थी।गाना उनके लिए पेशा न था, वव्यवसाय न था,संगीत तो उनके लिए बस एक जप था,तप था।जी हाँ मैं बात के रहा हुँ स्वर्गीय राजकुमार श्यमानंद सिंह की।आज उनकी शताब्दी जन्म तिथि मनायी जा रही है।उनके बारे में जितना सुनता हूँ उतना और ज़्यादा जान ने की इच्छा होती है।उन्होंने अपनी संगीत की तालीम उस्ताद भीष्मदेव चैटर्जी,पं भोला नाथ भट्ट,उस्ताद बच्चू खान जैसे तत्कालीन दिग्गजों से ली थी।उनके गाने की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह है उनकी बंदिश की अदायगी।जब भी मैं उनके द्वारा गाये भजन जैसे-"हम तुम्हें देख नंदलाल जिया करते हैं"या "दुःख हरो द्वारकानाथ" सुनता हूँ तो लगता है की कितने दिल से याद किया करते थे अपने श्याम को।ये भजनें महमहिमों के राज भवनों में गूंजा करती थीं तो चम्पानगर के किसी निर्धन की झोपडी भी इसकी साक्षी रह चुकी है।डा॰ज़ाकिर हूसेन,भारत के पूर्व राष्ट्रपति भी बाबा के गाने के क़ायल थे।महज ३२ वर्ष की आयु में उन्होंने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन जो प्रयाग संगीत समिति द्वारा आयोजित था उसमें उन्होंने अध्यक्षता की।वहाँ पर उनके द्वारा दिया भाषण शास्त्रीय संगीत पर अदभुत बिवेचना है और इस विधा के विभिन्न आयामों पर उनकी सोच को रेखांकित करता है।उनकी संगीत की व्याख्या की समझ भी अदभुत थी।उस वक़्त के शायद ही कोई संगीतकार होगा जो इनके चम्पानगर स्थित आवास पर न आया होगा।वे जन्म से तो राजा थे ही किंतु अपने कर्मों से वो साधक थे।जिनके लिए श्याम ही आदि थे और श्याम ही अंत थे। वो मेरे बाबा थे,मेरे पिता के नाना थे इससे भी बड़ी बात वो एक संगीतकार थे,संगीत के पुजारी थे।गाने की जब मैंने शुरुआत की थी तब मेरे मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ ये थे। आज भी जब मैं गाता हूँ तो उनकी यह पंक्ति मेरे ज़ेहन में रहती है-"रूह से गाओ गले से नहीं"। उनको जितना सुना और उनके बारे में जितना सुना निसंदेह वे एक मानव नहीं बल्कि एक महा मानव थे।आज उनकी शताब्दी मनायी जा रही है और उनको मेरा सत्-सत् नमन।।

Tuesday, 19 July 2016

गुरु पूर्णिमा...

आज आषाढ़ मास की पूर्णिमा है और आज का दिन गुरुओं को समर्पित है।आज के दिन उनकी पूजा होती है। हाँ!आज दिन है गुरु पूर्णिमा का।सबसे पहले मैं उन सब को नमन करता हुँ जिनसे मैंने थोड़ा-बहुत भी कभी कुछ सीखा हो।
   गुरु पूर्णिमा का दिन तो मेरे लिए या कहिये उन सभों के लिए और भी ख़ास हो जाता जो गुरु-शिष्य परम्परा से संगीत,नृत्य या और भी किसी चीज़ की शिक्षा ले रहे हैं।
उस्ताद वसीम अहमद खान
   गु शब्द का अर्थ-अंधकार और रु शब्द का अर्थ-प्रकाश होता है।हाँ! गुरु वो होता है जो शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है,असत्य से सत्य की ओर ले जाता है।अब मैं अपनी बात करता हूँ।बात उस वक़्त की है जब मैं ४ वर्ष
श्री अमरनाथ झा
का था।उस वक़्त मुझे न बैठना आता था न ठीक से बोलना,उस समय मेरे गुरु जी श्री अमरनाथ झा ने मुझ में संगीत की समझ,राग-रागिनीयों की पहचान करवाई।और लय-ताल से भी मुझे अवगत करवाया।श्री अमरनाथ झा राजकुमार शायमानंद सिंह के शिष्य हैं।उनके गाने में सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वह उनकी बंदिश की आदयगी है जो सम्भवत: उन्होंने अपने गुरु से सीखी।आज जितनी भी संगीत मुझ में है निसंदेह उसकी नींव इन्होंने ही रखी और इसके लिए मैं सदा इनका आभारी रहूँगा।
    अब मैं बात करता हूँ उनकी जिनसे मैं अभी संगीत की शिक्षा ले रहा हूँ।हाँ! मैं बात कर रहा हुँ उस्ताद वसीम अहमद ख़ान की।अभी पिछले ही पोस्ट में मैंने उनके बारे में काफ़ी कुछ कहा।वो गुरु तो अच्छे हैं ही लेकिन साथ-साथ मुझे जो उनकी सबसे अच्छी बात लगती है वह है उनकी "व्यक्तित्व"।मुझे आज भी याद है जब मैंने उनसे तालीम लेनी शुरू ही की थी तब मैं ज़ोरदार बीमार पड़ा था,जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा था,तब उन्होंने मेरी कुशलता के लिए ख़ास नमाज़ अदा की।आज भी जब मैं उनसे तालीम लेने कोलकाता जाता हूँ तो संगीत सिखाने के साथ-साथ वो इस पर भी ध्यान देते की मेरे व्यक्तित्व का भी समग्र विकास हो।मेरे गुरु जी अच्छे कलाकार के साथ-साथ अच्छे गुरु भी हैं।उनका तालीम देने का तरीक़ा भी मुझे बहुत अच्छा लगता।
    मैंने काफ़ी कुछ कह दिया अपने गुरुओं पर।बातें तो इतनी हैं की कभी ख़त्म ना हो इसलिए और बातें फिर कभी।एक बार फिर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मैं उन सब को प्रणाम करता हूँ जिनसे मैंने कुछ भी कभी भी सीखा हो।और अंत करूँगा मैं कबीर के इस दोहे से-
       " सब धरती काग़ज़ करूँ,
          लेखन बन रे
          साथ समुद्र की मास करूँ,
          गुरु गुण लिखा ना जाए।।"

Saturday, 16 July 2016

'जसराज' की 'जसरंगी'

मैंने बहुत सारी जुगलबंदीयाँ सुनी।चाहे वो उस्ताद राशिद खान और पंडित भीमसेन जोशी की हो या पंडित हरिप्रसाद चौरासिया और पंडित बालमुरलीकृष्ण की हो सब अपने आप में अदभुत थे।किंतु, आज मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसे जुगलबंदी की जिसमें एक गायक और गायिका अलग अलग स्केल,अलग अलग राग गाते हुए जुगलबंदी करते।कई बार तो वे बिलकुल अलग शैली गाने वाले और अलग घराने के भी होते।जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ "जसरंगी" की।जसरंगी पं जसराज की एक अवधारणा है।जसरंगी पहेली बार पुणे में गाया गया था।जसरंगी को ले कर पंडित जी की यह सोच है की "हवा-पानी, धरती-गगन, राधा-कृष्ण, शिव-शक्ति सब दो अलग-अलग इकाई हैं। जब दोनों मिलते हैं तो पूर्णता आती है। ऐसे ही महिला-पुरुष स्वर एक साथ जुगलबंदी करें तो शायद पूर्णता आए।"इस सोच में पंडित जी सफल भी रहे क्योंकि आज जब कभी मैं या कोई भी संगीत-प्रेमी इस अदभुत जुगलबंदी को सुनता है तो एक अदभुत अनुभूति होती है।

      एक ने राग नट भैरव का चित्रण किया तो दूसरे ने राग माधवंती का।दोनों को एक साथ सुनकर एक अदभुत
आनंद मिल रहा था।एक मेवाती घराने से आते तो दूसरी जयपुर घराने से।ये दोनों एक साथ इतनी ख़ूबसूरती से गा रहे थे की ये एहसास भी नहीं हो रहा था कि दोनों अलग-अलग राग गा रहे थे।इतना ही नहीं दोनों अलग-अलग स्केल पर भी गा रहे थे और तो और दोनों को अलग-अलग संगतकार भी संगत कर रहे थे।जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ विधुषी अश्विनी भिड़े और पंडित संजीव अभ्यंकर की।गायन शुरू करने से पहले जानकारी देते हुए यह बताया की यह जुगलबंदी मूरछाना पद्धति पर आधारित है। 
  
    बाद मैं मैंने पं रतन मोहन शर्मा और गरगी सिद्धांत जी की जसरंगी जुगलबंदी सुनी।इन दोनों ने भी राग जोग और वृंदावनी सारंग का अनूठा मिलन किया है।
वैसे तो अभी ये नया प्रयोग है।देख़ये आगे यह कितना लोकप्रिय होता है संगीत रसिकों के बीच।
और भी चर्चा करूँगा संगीत पर लेकिन आज नहीं फिर कभी।।

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Monday, 11 July 2016

Perfection thy name is my Guru Jee-Ustad Waseem Ahmed Khan

Ustad Waseem AhmedKhan-my GuruJee, my mentor, my friend, my guide. I believe that I am the luckiest and most fortunate person because he accepted to teach little old me music from sa,re,ga,ma. My life has been greatly enriched by my association with him. 
           It was sometime in July few years back when my GuruJee was in Purnea, Bihar for his concert on the occasion of Late Rajkumar Shyamanand Singh's birth anniversary,that was the first time I heard him live. I was completely mesmerized by his singing though I didn't have much knowledge of sur, taal or ragas at that time. To add to the beauty of gayaki was the wonderful tabla accompaniment by the young maestro, Shri Sanjay Adhikari. My sincere thanks to my baba (Prof Balanand Sinha)

who insisted him to accept me as his disciple. I am privileged that he accepted me as his disciple. I often encountered with the word "PERFECTION" in my life. I didn't quite understand what it means to be perfect. It was only after I met my guru jee that I began understanding what it means or say what it means to be perfect. Here I would like to share one of my experiences with my GuruJee. He was giving me a talim of Raag Bhairav. He asked me sing a phrase of Raag bhairav during the course of aalap. The phrase was komal re, ga, ma. I was unable to sing the phrase as he wanted me to. To my surprise he made me sing the phrase for an hour or more until it was perfect up to some extent. 
            My GuruJee comes from the great lineage of Agra Gharana. He took his initial talim from his father Ustad Naseem Ahmed Khan and later by Ustad Shafi Ahmed Khan at ITC SRA. He has the previlage of being the maternal grandson of Ustad Ata Hussian Khan who is one of the all time great doyen of this gharana. The agra gharana is characterized by the forceful and loud projection of voice. Nom-tom aalap like dhrupad is a unique legacy of this gharana. Laay kari plays a major part in the agra style singing.  
        All the characteristics of this gharana can be seen in the singing of my GuruJee. And why shouldn't it be? He has got the Agra Gharana singing in his genes, inherited from his father and fore fathers. In the modern era of fusion and mixing, the word "puritan" can be used for my Guru Jee. He has performed in all major music festivals in India like-Saptak, Sawai Gandhrva Music Festival,Spic Macay International Convention etc, also he toured Germany, France Canada and Bangladesh for various music festivals. Wherever he has performed, he took the audience by storm and has kept them in awe stricken trance with his magical voice, vast knowledge and the masterly handling of various known and rare raagas. Currently he is a faculty at ITC SRA Kolkata. Yes, indeed I am fortunate that I got a guru like Ustad Waseem Ahmed Khan.

          


Saturday, 9 July 2016

कव्वाल साबरी से कैसी दुश्मनी?



२३ जून की सुबह अख़बार की इस ख़बर ने मुझे परेशान सा कर दिया।मैं विस्मित था,आहत था कि किसी कलाकार से, किसी संगीतज्ञ से किसी की कैसी बैर?

      संगीत कला तो ईश्वर की इबादत है।वास्तव में संगीत ईश्वर के क़रीब जाने का एक माध्यम है। संगीत कला का कोई सरहद नहीं होती है। इसे जाति, धर्म, देश, क्षेत्र में नहीं बांधा जा सकता।संगीत तो नदी की धारा की तरह अविरल है।यह तो आत्मा से परमात्मा तक पहुँचने का एक ज़रिया है।संगीत एक एक जुनून है,एक सुकून है और क़व्वाली तो सूफ़ी संतों की गायन की एक शैली है।

शुरूआत में तो क़व्वाली सिर्फ़ दरगाहों पर गाया जाता था पर आज यह साबरी बंधु जैसे गायकों के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध है।
 फिर क्यों किसी ने अमजद साबरी जैसे अल्लाह के बंदे की आवाज़ से दुनिया भर के लोगों को महरूम कर दिया? भर दो झोली मेरी या मुहम्मद..., ताजदार-ए-हरम...और मेरा कोई नहीं है तेरे सिवा...जैसी जुबां पर चढ़ी कव्वालियां इन्हीं साबरी
बंधुओं की देन है।अब ये आवाज़ फिर नहीं सुनाई देगी क्योंकि किसी ने अमजद साबरी की गोली मार कर हत्या कर दी है।अमजद साबरी मशहूर कव्वाल गुलाम फरीद साबरी के बेटे थे।सूफ़ियाना क़व्वाली के लिए जाने जाते थे साबरी।इन्होंने अपने पिता से ही गाने की तालीम ली थी।अमजद "साबरी ब्रदसॅ" के नाम से मशहूर पाकिस्तानी क़व्वाल घराने से ताल्लुक़ रखते थे।संगीत तो इन्हें विरासत में मिला और इन्होंने बड़े बख़ूबी इसे आगे पहुँचाया।संगीत की ख़िदमत इनका एक मात्र मिशन था।अमजद साबरी मशहूर कव्वाली गायक मकबूल साबरी के भांजे थे, जिनकी 2011 में मौत हो गई थी।मुझे तो ऐसा लगता इनका पूरा परिवार ही संगीत को समर्पित था।इन्होंने ने भारत और पाकिस्तान के अलावा यूरोप और अमेरिका में भी कई कार्यक्रम किए थे। उन्हें गायिकी की आधुनिक शैली के लिए कव्वाली का ‘‘रॉकस्टार’’ भी कहा जाता था।
साबरी अब भले ही हमारे बीच न रहे किंतु वो अपने क़व्वालियों के ज़रिए सदा हमारे दिल में रहेंगे।आज जब उनके द्वारा गाये गए क़व्वालियों को सुन रहा तो लगा की सच-मुच वे कितने दिल को अल्लाह को याद किया करते थे।।

Friday, 1 July 2016

मन में बस गया... "भारत भवन"

मैं झील के किनारे बैठा हुआ हूँ।ठंडी-ठंडी हवा चल रही है और चारों ओर हरे-भरे पेड़।वातावरण में एक अजीब सी शांति और शकुन का एहसास हो रहा है।धीमी आवाज़ में सितार पर राग यमन की अलाप कानों में आ रही है।
एक ऐसी जगह जहाँ कला के हर प्रकार का वास है।ऐसी जगह जहाँ साहित्य भी है, जहाँ संगीत भी है।जहाँ नृत्य भी है, पेंटिंग भी है।जहाँ थियेटर भी है सिनेमा भी है।कहीं पंडित जसराज की मधुर आवाज़ भी गूँजती तो कहीं कथक की थिरकन तो कहीं भरतनाट्यम् की भाव का अहसास होता है।पांडवानी के रूप तीजन बाई की भी
उपस्थिति का अहसास है यहाँ पर।जहाँ कलाकारों की कला-कृतियाँ मन को अभिभूत कर रहीं है तो जहाँ जन-जन के कवि बाबा नागार्जुन की पंक्तियाँ भी सुनाई दे रही है।जी हाँ बात कर रहा हूँ मैं भोपाल में स्थित भारत भवन की।ये जगह मेरे लिए किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं है।जैसे जैसे मैं इस प्रांगन में घूम रहा हूँ वैसे-वैसे मुझे कई कलाकारों,कवियों,लेखकों,रंगकर्मियों की सुखद अहसास और अनुभूति हो रही है।
सबसे पहले मैं "रूपानकर" पहुँचा।ये भारत भवन का एक अंग है जो की माडर्न,लोक और जन-जातीय कला-कृत्यों का एक संग्रहालय है।इस संग्रहालय में कई राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय प्रदर्शनी हो चुकें हैं अभी तक।जे स्वामिनाथम,के जी सुब्रमणीयम,हेन्री मोरे जैसे कई कलाकारों के प्रदर्शनी यहाँ आयोजित किए जा चुके हैं।
इसके बाद मैंने भारत भवन का रंगमंच पहुँचा-"रंगमण्डल"।यह रंगमंच नाटक जैसे कला,जो की लोगों के बीच से विलुप्त हो चुका है,को संजों कर रखने में एक बहुत बड़ा योगदान दे रहा है।१००० कार्यक्रम और ५० से भी ज़्यादा नाटकों के मंचन का साक्षी रह चुका है यह रंगमंच।पीटर ब्रुक,निरंजन गोस्वामी,तापस सेन जैसे कई दिग्गज यहाँ अपनी प्रस्तुति दे कर लोगों को अभिभूत कर चुके हैं।यहाँ समकालीन लेखकों के नाटकों की  भी
प्रस्तुति होती है तो सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ नाटकों का भी मंचन होता ही है।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी,बाबा नागार्जुन,शमशेर सिंह बहादुर जैसे कवियों के कविताओं में डूब गया है मन।जी हाँ मैं भारत भवन के भारतीय कवियों को समर्पित एक अंग "वगरथ" पहुँच चुका हूँ।१३००० से भी ज़्यादा कविताओं के पुस्तक से लैस, शायद ये अपने तरह का अकेला संग्रहालय होगा जहाँ इतने सारे कवियों की कविता किसी को एक जगह मिल सकती है।यहाँ पर कई बड़े कवियों और लेखकों के हस्त लिखित रचनायें भी रखी हुई हैं जो की अपने आप में अदभुत हैं।यहाँ पर कई बड़े कवि सम्मेलन का आयोजन होता ही रहता है।
अब मैं भारत भवन के उस अंग में आ पहुँचा हूँ जिसे देखने के लिए मैं सबसे ज़्यादा उत्सुक था।हाँ!! मैं पहुँच गया हूँ "अनहद"--यह भारतीय शास्त्रीय ,लोक और आदिवासी संगीत का केंद्र है।यहाँ कई प्रकार के संगीत सम्मेलन होते हैं जैसे-परम्परा,सप्तक आदि।अनहद अपने स्थापना से आज तक के गौरवमय यात्रा में कई दिग्गज कलाकारों की कला प्रस्तुति का साक्षी रह चुका है।चाहे वो पं जसराज हों या उस्ताद ज़ाकिर हूसेन या उस्ताद अल्लाह रखा हों या पं रविशंकर सभी के संगीत की गूँज सुनाई देती है यहाँ।अभी पिछले ही वर्ष यहाँ आगरा घराने पर एक संगीत गोष्ठी हुई था जिसमें मेरे गुरूजी उस्ताद वसीम अहमद खान को भी आमंत्रित किया गया था।
इसके बाद मैं "छवि" पहुँचा।यह भारत भवन का हाल में ही बना एक अंग है जो कि भारतीय सिनेमाओं के लिए एक केंद्र है।यहाँ पर कई राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं।
बहुत दिनों से इच्छा थी भारत भवन देखने की।वो आज पूरी हो गयी।मुझे इतना कुछ देखने के बाद ऐसा लगता
की शायद भारत में कोई दूसरा भारत भवन नहीं होगा।
सच-मुच भारत भवन अपने भारत नाम को साकार करता है।भारत के विविधताओं को संजो कर रखने और उसे लोगों के बीच पहुँचाने का काम भारत भवन पिछले कई दशकों बख़ूबी करता आ रहा है और यह आज भी जारी है।किसी कला प्रेमी के लिए यह किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं।।


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Sunday, 19 June 2016

पूर्णिया से भोपाल, बस गीत और संगीत...

बहुत सारा शहर देख लिया,घूम लिया अपनी १७ वर्ष की उम्र में।कभी इलाज के चक्कर में तो कभी संगीत के क्रम में।
    इस बार भोपाल भी देख लिया-घूम लिया।पर इस बार न तो इलाज कारण था ना ही संगीत।पर इस बार तो गर्मी की छुट्टियों का आनंद ही एक मात्र कारण था।
     भोपाल शहर अपने-आप में अदभुत है।शांत,सुंदर झीलों का शहर भोपाल भारत के सुंदरतम शहरों में गिना जाता है।और हो भी क्यों ना? मध्य प्रदेश को भारत का ह्रदय कहा जाता है और भोपाल तो मध्य प्रदेश का ही ह्रदय है।भोपाल से १८० की.मी स्थित जहाँ उज्जैन है जो की हिंदुओं का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है शिप्रा नदी के किनारे अवस्थित द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।वहीं भोपाल में ताज-उल
झीलों के शहर का एक झील
मस्जिद है जो की भारत के सबसे विशाल मस्जिदों में से एक है। 
भोपाल शहर गंगा-यमुनी तहज़ीब का एक अनूठा उदाहरण है।
         भोपाल आज विश्व में एक और कारण से जाना जाता है और वह है ११८४ में अमरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव से लगभग बीस हजार लोग का मारा जाना।ये इतनी बड़ी दुर्घटना थी की इसका प्रभाव आज भी वायु प्रदूषण,जल प्रदूषण के रूप में जारी है।
  वैसे भोपाल शहर अपने पर्यटन स्थलों के लिए जाना जाता है।भोपाल से 28 किमी दूर स्थित भोजपुर जो की भगवान शिव को समर्पित भोजेश्वर मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
  भोपाल स्थित भारत भवन के बारे में तो क्या कहूँ? साहित्य, कला और संगीत का अदभुत संगम यहाँ किसी को देखने को मिल सकता है।भारत भवन पर विस्तृत बात-चीत अगली बार करूँगा।
  भोपाल स्थित जन-जातिये (tribal museam)संग्रहालय
एक अनोखा फ़्यूज़न है माडर्न आर्ट और जन-जातीये आर्ट का।कोई यह संग्रहालय
देख ले तो उसे जन-जातियों के रहन-सहन, उनके खान-पान,और उनके सांस्कृतिक विरासत की अदभुत झलक देखने को मिलती है।
जन जातियों की संगीत
जन-जातियों के खेलों के बारे में काफ़ी कुछ जानने को मिला।रक्कु,पिटटो,क़ुस्ती,मछली पकड़ने के खेल आदि कई जन-जातीय खेलों के बारे में जानने को मिला।मेघनाध खम्भ जो की जो की भिल समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है यह खम्भ मेघनाद पूजा में भीलों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है।उसकी भी एक कला-कृति मुझे यहाँ देखने को मिली।इन जन-जातियों से जुड़ी हुई अदभुत सांस्कृतिक और कलात्मक पहलुओं को सहज-सँवार कर रखने की जरुवत है जो की यह संग्रहालय बख़ूबी कर रहा है और हम जैसे लोगों को इस सब के बारे में अवगत करा रहा है।

  संगीत के बिना तो मेरी हर यात्रा अधूरी रहती है। उज्जैन जाने के रास्ते में मैं देवास से गुज़रा।ये वही जगह है जिसने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को एक दिग्गज संगीतकार दिया।जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ पं कुमार गंधर्व की।उन्होंने अपनी गाने की एक अलग ही शैली बना ली थी जिसके कारण वे कई बार विवादों में भी पड़े किंतु उनका ऐसा मानना था की वो एक रूढ़िवादी हैं और कुछ नया करना चाहते थे और इसी कारण उन्होंने कभी भी किसी घराने को नहीं अपनाया।इन्होंने अपनी संगीत की शिक्षा पं बी॰आर डेओढ़र से ली थी।पंडित जी एक अदभुत गायक तो थे की किंतु
ध्रुपद केंद्र की दीवार से
 उसके साथ-साथ वे एक म्यूज़िकॉलॉजिस्ट भी थे।पंडित जी ने ख़याल के साथ- साथ निर्गुण भजन,लोक गीत आदि भी अपने शैली में गा कर लोगों को अभिभूत किया है।इन्हें १९८८ में पद्मा भूषण और १९९० में पद्मा विभूषण से नवाज़ा गया है।इन्होंने राग गांधी-मल्हार की रचना भी की है जिसे इन्होंने पहली बार महात्मा गांधी के शताब्दी वर्ष पर आयोजित एक कार्यक्रम में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में लोगों के सामने गाया था।इतना कुछ पढ़ने के बाद पंडित जी की आवाज़ में "उड़ जाएगा हंस अकेला" सुना तो अदभुत रुहानियत का एहसास हुआ।पंडित जी की अनोखी गायकी और बुलंद आवाज़ के बारे में तो क्या कहूँ! लीजिए मैं पंडित जी पे काफ़ी कुछ बोल गया।फिर मैं घूमते घूमते  ध्रुपद के गुरुकुल "ध्रुपद केंद्र" आ पहुँचा।ये संस्थान गुंडेचा बंधु द्वारा स्थापित १९८१ में की गयी थी।तब ये आज तक यहाँ गुंडेचा बंधु ने कई लोगों को गुरु-शिष्य परम्परा से ध्रुपद की तालीम दी है।भारत के साथ-साथ युरप के भी कई लोग यहाँ ध्रुपद की तालीम लेने आते हैं।

  और मेरी भोपाल यात्रा का अंत गुंडेचा बंधु के माता-पिता से भेंट के साथ हुआ।"सुनता है गुरु ज्ञानी" गुंडेचा बंधु की लिखी हुई ये किताब लेने के लिए मैं गुंडेचा बंधु के भोपाल स्थित आवास पर गया था जहाँ मेरी मुलाक़ात उनके माता-पिता से हुई।उनलोगों को देख कर आश्चर्य हुआ इतने बड़े दिग्गजों का घर और इतने सरल और सहज लोग!
  इस प्रकार मेरी भोपाल यात्रा का सुखद अंत हुआ।काफ़ी कुछ देखने-जानने को मिला मुझे भोपाल शहर को देखने पर।।



Tuesday, 7 June 2016

वर्षा ऋतु के रंग मल्हार के संग...

लोग कहते कि जब मियाँ तानसेन राग दीपक गाया करते थे तो दीपक प्रज्वलित होने लगती थी।जब वो राग मल्हार गाया करते थे तो बारिश होने लगती थी।मुझे ये तो नहीं पता कि ऐसा होता था या नहीं किंतु मैं अपने छोटे से संगीत के अनुभव से इतना ज़रूर कह सकता कि अगर आप ऐसा कोई राग किसी दिग्गज की आवाज़ में सुनें तो निश्चित आपको ऐसा लगेगा की दीये जल उठें हों या बारिश हो रही हो।मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा की सच-मुच की आग या पानी आपको देखेगी किंतु आपको ऐसा अहसास ज़रूर होगा।
   आज की ही बात ले लीजिए।मैं घर पर बैठकर आज उस्ताद राशिद खान साहब की राग मल्हार सुन रहा था।मुझे विश्वास है जब राशिद खान साहब "बिज़री चमके बरसे" गा रहें होंगे तो उनके मन में निश्चित ही बरसात वाली दिन का पूरा चित्रण होगा।उस राग के कुछ देर बजने के बाद वातावरण में एक अ
उस्ताद राशिद खान
दभुत ठंडक की अनुभूति होने लगी, ऐसा अहसास जैसे अभी कुछ की देर पहले ज़ोरों की बारिश हुई हो। राग मल्हार तो अपने आप में ही बड़ा मधुर और गम्भीर वातावरण पैदा करने वाला राग है, वो भी उस्ताद जी की अदभुत अदायगी इस राग की मधुरता पर चार चाँद लगा रहे थे।राशिद खान साहब रामपुर सहस्वान घराने से आते और इन्होंने अपनी संगीत की तालीम कई दिग्गज कलाकारों से ली है उनमें से उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान और उस्ताद निशार हूसेन खान प्रमुख हैं।इनकी गायकी के लिए इन्हें पद्मा श्री और भी कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है।लीजिए मैं राग मल्हार की बात करता-करता उस्ताद जी की बात करने लगा।किंतु आज चर्चा सिर्फ़ और सिर्फ़ राग मल्हार पर उस्ताद जी की बातें फिर कभी।
   तो आइए आज बात करते हैं राग मल्हार की उसकी विशेषताओं की।सुखद संयोग तो देखिये अब जब लोगों को मानसून की पहली झमा-झम बारिश का इंतज़ार है तो ऐसे मैं राग मल्हार की चर्चा तो बनती ही बनती है।
उस्ताद शफ़ी अहमद खान
यह राग हिंदुस्तानी के साथ -साथ कर्नाटिक संगीत में भी गाया जाता है।मधायामावती, नाम से जाना जाता है यह राग कर्नाटिक शैली में।एक बहुत ही ख़ास बात मैं बताना चाहूँगा यहाँ-हमारा राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्' भी राग मल्हार में ही गाया गया है।अभी मैं कोलकाता प्रवास कर रहा हूँ और अपने गुरूजी, आगरा घराने के उस्ताद वसीम अहमद खान से तालीम लेने के क्रम में।मौसम ख़ुशनुमा है और बातों बातों में बात राग मल्हार पर चली तो गुरूजी ने उसके बारे में काफ़ी कुछ बतलाया।रामदासि मल्हार,सूरदासि मल्हार,मेघ मल्हार कुछ मल्हार के ऐसे प्रकार हैं जो की काफ़ी प्रसिद्ध हैं इस अदभुत घराना का।मैं यहाँ पर विशेषकर ये बताना चाहूँगा की राग मेघ मल्हार विशेषकर आगरा घराने के गायकों द्वारा गाया जाता है बाक़ी घरानों में इस राग को राग मेघ के नाम से गाया जाता।अगर राग मल्हार की आलपचारी आगरा घराने वालों की हो तो फिर तो क्या कहने! बंदिश की ख़ूबसूरती और भी बढ़ जाती।इतने में गुरुजी ने आगरा घराने की एक ख़ास बंदिश अपनी दमदार आवाज़ में गुन-गुनायी "रिमझिम रिमझिम मेहा बरसे"-(यह बंदिश उनके गुरूजी उस्ताद शफ़ी अहमद खान साहब द्वारा रचित है)तो चारों ओर बादल ऐसे आ गाये जैसे यह बंदिश उनके लिए आमंत्रण हो।"आए आती धूम धाम" उस्ताद फ़ैयाज़ खान साहब की बहुत ही लोकप्रिय बंदिश है राग मेघ मल्हार में है।
   अब बात करते हैं ग्वालियर घराने की।ग्वालियर घराने की संगीत परम्परा तो सदियों पुरानी है।राजा मानसिंह तोमर या उससे पहले से ही चली आ रही इस घराने ने कई नायाब संगीतकार दिए हमारे देश को।बैजू बावरा, कर्ण और महमूद जैसे दिग्गज इसी घराने से आते।इन तीनों ने हमें एक नई प्रकार की मल्हार दी जो की बिक्शु की मल्हार, धोन्डिया की मल्हार और चाजू की मल्हार के नाम से मशहूर हुई।  ग्वालियर घराने के उस्ताद अब्दुल रशीद ख़ान की आवाज़ में राग ग़ौड मल्हार में "बादर बरसवे बरसात" से मन को एक ग़ज़ब की अनुभूति हुई।इस महान संगीतकार के तो बारे में क्या कहूँ।अपनी १०८ वर्ष की गौरवमयी जीवन में ४००० ठुमरियों से भी ज़्यादा ठुमरियाँ रची है इन्होंने जिसके कारण इन्हें रसन पिया के नाम से भी जाना जाता।
पं अजय चक्रबर्ती

           मेरी इस राग में और रुचि बढ़ी तो ढूँढते ढूँढते  मैं पटियाला घराने के पंडित अजय चक्रवर्ती की मधुर आवाज़ में राग मल्हार के झपताल में गरजे घटा घन कारे कारे पावस रुत आई...’ और उसके बाद द्रुत लय तीनताल में निबद्ध पण्डित ज्ञानप्रकाश घोष की रचना- ‘घन छाए गगन अति घोर घोर...’ तक पहुँच गया।सच मुच वातावरण में एक बरसात की ठंडक की एहसास होने लगी इन दोनों की आवाज़ सुन कर।

राग मल्हार तो ऐसा राग है जिसपे जितनी चर्चा की जाए कभी ख़त्म ही ना हो।आगे मिलेंगे और राग मल्हार के प्रकार और उनमें कुछ ख़ास बंदिशों पर चर्चा करेंगे। अभी तो वर्षा ऋतु की आगाज ही हुई है।













Tuesday, 31 May 2016

एक शाम बस संगीत के नाम....

विदुषी किशोरी अमोनकर
परीक्षा ख़त्म हो चुकी है और लम्बी छुट्टियों की आगज हो चुकी है।अब पढ़ाई का कोई बोझ नहीं,कोई तनाव नहीं।आज ना तो मुझे पापा को पढ़ाई की हिसाब देने की जरुरत है और न मम्मी की ये आवाज़ आने की डर की पढ़ाई करने बैठो।आज शाम तो बस शास्त्रीय संगीत के राग-रागनियों का आनंद लेने का होता है। उनमें डूबने का होता है।
                 संध्या बेला है तो शुरुआत तो राग यमन से ही होनी है। वो भी विदुषी किशोरी अमोनकर की आवाज़ में।पद्मा विभूषण किशोरी अमोनकर जी जयपुर घराने से आती हैं।इस घराने में गमक वाली तानें और मींड के साथ अलाप ख़ासियत है।वाह! क्या अदभुत,मधुर,सुरीली आवाज़ है विदुषी किशोरी अमोनकर जी की ।कोई भी सुने तो बस सुनता ही रह जाए। राग यमन के बारे में तो ऐसा कहा जाता की किसी गायक की गायकी का पता उसके राग यमन की अदायगी से चल सकताहै राग यमन की सम्पूर्ण अदाएगी वो भी" सखी ऐरी आली पिया बिन " जैसी बंदिश,  किशोरी  अमोनकर जी की आवाज़ में हो तो इससे बेहतर शाम की शुरुआत क्या हो सकतीहै।किशोरी अमोनकर जी ने अपनी संगीत की शिक्षा भेंडि बाज़ार घराने के अंजनीबाई मलपेकर जी से ली हैं।इनकी आवाज़ तो ऐसी की फ़िल्मी दुनिया भी इनकी आवाज़ से अछूती न रही।१९६४ की फ़िल्म गीत गाया पत्थरों ने और १९९० की फ़िल्म दृष्टि में इन्होंने गाने गाये हैं जो कि आज भी काफ़ी लोकप्रिय हैं।
      अगली बारी भी आती जयपुर घराने की ही विदुषी अश्विनी भिड़े की ।ओह! इनकी दिव्य आवाज़ की तो क्या कहने।राग बागेश्वरी बहुत जंच रहा था इनकी आवाज़ में।वैसे इनकी गायकी में कुछ हद तक मेवाती और किराना घराने की गायकी की छाप आती इस कारण इनकी गायकी का की एक अलग की शैली है।इन्होंने
विदुषी अश्विनी भिड़े
अपनी संगीत की शिक्षा जयपुर घराने के पंडित रत्नाकर पाई से ली है।अपनी गायकी और मधुर आवाज़ के बदौलत इन्होंने कई बड़े संगीत समारोहों में अपनी गायन से लोगों को अभिभूत किया है।राग बागेश्वरी का विरह और श्रृंगार  रस को विलंबित एकताल में "कौन गत भई" और द्रुत में "ऐरी माई साजन नहीं आए"जैसी बंदिशों में अदभुत रूप से पेश  किया है इन्होंने।

शाम को और आगे बढ़ाते हैं और चलते हैं राग जयजयवंती की ओर वो भी बनारस घराने के पंडित राजन साजन मिश्र की आवाज़ में।
बनारस घराने की तो ख़ासियत ऐसी की उत्तर भारतीय लोक संगीत की छाप भी  दिखायी देती इसमें।इन दोनों की आवाज़ इतनी मीठी की कोई भी इन दोनों के आवाज़ से अभिभूत हो जाए।चाहे इनकी आवाज़ में ख़याल हो या हो ठुमरी या टप्पा या तराना सब में लगता जैसे इन दोनों को महारथ हासिल हो।इनको इनकी अदभुत
पंडित राजन साजन मिश्र
गायकी के लिए पद्मा भूषण से भी नवाज़ा जा चुका है।राग जयजयवंती,जिसे अक्सर लोग एक जटिल राग के रूप में देखते पर इनकी आवाज़ में "ऐसों नवल लाड़ली राधा"।सच मुच कितने दिल से गाते ये दोनों बनारस घराने के दिग्गज। 


ऐसी किसी की चाहत न होगी कि ऐसी शाम का अंत हो।संगीत तो ऐसी होती की इसको जितना सुनो उतना और सुनने का मन करता,उतना और डूबने का मन करता।
फिर मिलते हैं और चर्चा करते हैं संगीत पर।।


Sunday, 29 May 2016

Music with divinity.....Carnatic Music

Vidhushi MS Subbulakhshmi
 I was in vellore for my check-ups. This time the place felt much familiar to me. Moreover, it was my sixth visit to this place and I just hoped that it would be the last one.
      One thing which attracts me the most in the southern part is their temples. The religious, serene, musical environment of the temples just attracts me the most. The temples and the sweet, melodious carnatic music being played at a low volume make the environment perfect to take someone in a musical trance. The magical voice of the Carnatic singers keeps the listeners in a awe stricken trance. The famous Kanchi Kailasanathar temple in Kanchipuram is considered one of the oldest structures, the temple is dedicated to Lord Shiva.The credit of the building of this temple has been given to the rulers of the Pallava dynasty.The temple has a beautiful structure to look at. To add to the beauty of temple is the low volume played Carnatic music.I heard a Shiva bhajan in some sweet, divine and melodious voice.
 The voice was mesmerizing and had magnetic power in it which was attracting me. Later I found out the voice was of no other but of Bharat ratna MS Subbulakhshmi. I had heard Carnatic music quite a few times in past but it had not fascinated me the way it did this time.MS Subbulakhshmi is considered one of the finest vocalists India has ever produced. She is the first musician to be conferred by the Bharat Ratna in the field of music. Awarded with a numerous other awards she holds the pride of getting the prestigious Ramon Magsaysay Award, which is considered as the Nobel Prize of Asia. The mastery of her presenting the ragas and the bhajans has made a lot of people the fan of her pristine voice.
This incident has made a Hindustani classical music lover a permanent Carnatic Classical music lover too.
Mridangam
Later, I got an opportunity to listen to some of the prominent doyens of Carnatic Music like-Vidhushi Karaikudi Mani and Vidwan TN Krishanan. The aura, the atmosphere created by this music is such that it cannot be explained in words. The five modern states of India-Andhra Pradesh, Telangana, Karnataka, Kerala and Tamil Nadu are the states; this music is roughly confined to. The reasons for the differentiation between North, and South Indian music are not clear. After a lot of thinking and reading about this I concluded that the difference in the music just represents the fundamental cultural difference between two distinct geographical areas. Numerous musicians and composers have enriched the tradition of this music. Some notable personalities were; Papanasam Shivan, Gopala Krishna Bharati, Swati Tirunal, Mysore Vasudevachar, Narayan Tirtha, Uttukadu Venkatasubbair, Arunagiri Nathar, and Annamacharya. Vocal music forms the basis of South Indian music.  Although there is a rich instrumental tradition that uses vina, venu and violin, they revolve around instrumental renditions of vocal forms. Like tabla in
Pt M Balamurali Krishna
Hindustani Classical Music performances, Mridangam is the main instrument that provide rhythm and ragga to Carnatic Music performances. Pt M Balamurali Krishna is one of the leading vocalist of the current generation.He has been conferred by Padma Vibhushan for his contributions towards the Indian Art.I often heard him in jugalbandis with prominent musicians like- Pt Bhimsen Joshi,Pt Hariprasad Chaurasia.Whenever I heard these jugalbandis or say the jugalbandi of Hindustani Music and Carnatic Music makes me a greater fan of both the music forms.


Someone has correctly said- "Carnatic music is synonym to salvation and eternity."


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Music Has No Boundaries...

One thing which can’t be stopped from travelling to a different country without a visa or passport is- Art and Music. I will talk about ...